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ज्ञानसार
वह शरीर की रोगी अवस्था का विचार करता है ! वृद्धावस्था की कल्पना करता है... और अन्त में निश्चेष्ट देह के कलेवर का दर्शन करता है...! उसके आसपास इकट्ठे हुए कौए और कुत्तों को देखता है : 'वे शरीर की बोटी-बोटी नोचखचोट रहे हैं !' अनायास वह आँखे मूंद लेता है : 'जिस शरीर को नित्यप्रति मेवा-मिष्टान्न खिलापिलाकर पुष्ट किया, नियमित रुप से नहलाया - सजाया और सुशोभित किया, क्या आखिर वह कौओं की तीक्ष्ण चोंचों का प्रहार सहने के लिए ? कुत्ते की दाढ तले कुचल जाने के लिए ? छिः छिः !
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वह शरीर को लकड़ी की चिता पर लाचार, मजबूर, निष्प्राण हालत में पड़ा देखता है ! क्षणार्ध में वह अग्नि की ज्वाला का भाजन बन जाता है और लकड़ियों के साथ जलकर राख हो जाता है । सिर्फ घंटे, दो घंटे की अवधि में वर्षों पुराना सर्जन राख की ढेरी बनकर रह जाता है और वायु के तेज झोंके उसे पल दो पल में इधर-उधर उड़ा ले जाकर नामशेष कर देते हैं ।
शरीर की इन अवस्थाओं का वास्तविक कल्पनाचित्र तत्त्वदृष्टि ही बना सकता है ! इससे शरीर का ममत्व टूटता जाता है ! उसका मन अविनाशी आत्मा के प्रति बरबस आकर्षित होने लगता है । आत्मा से भेंट करने हेतु वह अपने भौतिक सुख-चैन को तिलांजलि दे देता है । शरीर को दुर्बल और कृश बना देता है ! शारीरिक सौन्दर्य की उसे परवाह नहीं होती । शारीरिक सौन्दर्य के बलिदान से आत्मा के सौन्दर्य का प्रकटीकरण सम्भव हो तो वह उसे (शारीरिक सौन्दर्य को ) हँसते हँसते त्याग देता है । पापों के सहारे वह भूल कर भी शरीर को पुष्ट करना अथवा टिकाना नहीं चाहता । वह निष्प्राण वृत्ति धारण कर शरीर टिकाता है... वह भी आत्मा के हितार्थ ! तत्त्वदृष्टि का यही वास्तविक शरीर दर्शन है ।
गजाश्चैर्भूपभवनं विस्मयाय बहिर्दशः ।
तत्राश्वेभवनात् कोऽपि भेदस्तत्त्वदृशस्तु न ॥ १९ ॥६॥
अर्थ : बाह्यदृष्टि को गजराज और उत्तुंग अश्वों से सज्ज राजभवन को देख विस्मय होता है, जबकि तत्त्वदृष्टि को उसी राजभवन में और हाथी और घोड़े