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________________ ज्ञानसार वह शरीर की रोगी अवस्था का विचार करता है ! वृद्धावस्था की कल्पना करता है... और अन्त में निश्चेष्ट देह के कलेवर का दर्शन करता है...! उसके आसपास इकट्ठे हुए कौए और कुत्तों को देखता है : 'वे शरीर की बोटी-बोटी नोचखचोट रहे हैं !' अनायास वह आँखे मूंद लेता है : 'जिस शरीर को नित्यप्रति मेवा-मिष्टान्न खिलापिलाकर पुष्ट किया, नियमित रुप से नहलाया - सजाया और सुशोभित किया, क्या आखिर वह कौओं की तीक्ष्ण चोंचों का प्रहार सहने के लिए ? कुत्ते की दाढ तले कुचल जाने के लिए ? छिः छिः ! २६८ वह शरीर को लकड़ी की चिता पर लाचार, मजबूर, निष्प्राण हालत में पड़ा देखता है ! क्षणार्ध में वह अग्नि की ज्वाला का भाजन बन जाता है और लकड़ियों के साथ जलकर राख हो जाता है । सिर्फ घंटे, दो घंटे की अवधि में वर्षों पुराना सर्जन राख की ढेरी बनकर रह जाता है और वायु के तेज झोंके उसे पल दो पल में इधर-उधर उड़ा ले जाकर नामशेष कर देते हैं । शरीर की इन अवस्थाओं का वास्तविक कल्पनाचित्र तत्त्वदृष्टि ही बना सकता है ! इससे शरीर का ममत्व टूटता जाता है ! उसका मन अविनाशी आत्मा के प्रति बरबस आकर्षित होने लगता है । आत्मा से भेंट करने हेतु वह अपने भौतिक सुख-चैन को तिलांजलि दे देता है । शरीर को दुर्बल और कृश बना देता है ! शारीरिक सौन्दर्य की उसे परवाह नहीं होती । शारीरिक सौन्दर्य के बलिदान से आत्मा के सौन्दर्य का प्रकटीकरण सम्भव हो तो वह उसे (शारीरिक सौन्दर्य को ) हँसते हँसते त्याग देता है । पापों के सहारे वह भूल कर भी शरीर को पुष्ट करना अथवा टिकाना नहीं चाहता । वह निष्प्राण वृत्ति धारण कर शरीर टिकाता है... वह भी आत्मा के हितार्थ ! तत्त्वदृष्टि का यही वास्तविक शरीर दर्शन है । गजाश्चैर्भूपभवनं विस्मयाय बहिर्दशः । तत्राश्वेभवनात् कोऽपि भेदस्तत्त्वदृशस्तु न ॥ १९ ॥६॥ अर्थ : बाह्यदृष्टि को गजराज और उत्तुंग अश्वों से सज्ज राजभवन को देख विस्मय होता है, जबकि तत्त्वदृष्टि को उसी राजभवन में और हाथी और घोड़े
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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