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पूर्णता
यह सरासर गलत है । यही नहीं, बल्कि वह इसी को परिपूर्णता मान भ्रम- जाल में उलझ गया है, वह सर्वथा मतिमंद बन गया है । उसे यह ज्ञान ही कहाँ है कि धन, सौन्दर्य, शक्ति, सम्पत्ति और प्रतिष्ठा आदि अनेक विकल्प नीरी लहरें हैं, तरंगे हैं, जो अल्पजीवी हैं साथ ही क्षणभंगुर भी । थोड़े समय के लिये उछलती हैं, ऊपर उठती हैं, अपनी लीला से दर्शक को खुश करती हैं और देखते ही देखते समुद्र के गर्भ में खो जाती हैं, विलीन हो जाती हैं ।
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समुद्र की लहरों को आपने निरन्तर खलबलाते देखा है ? तूफान और आंधी को आपने लम्बे समय तक चलते पाया है ? लहर का मतलब ही हैअल्पजीवी । जब लहरें उठती हैं, उछलती है, तब समुद्र अवश्य तूफानी रूप धारण कर लेता है और उसमें भारी खलबली मच जाती है। उसका पानी मटमैला बन जाता है ।
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धन-धान्यादि से परिपूर्ण बनने की चाह रखनेवाले मनुष्यों की स्थिति इससे अलग नहीं है, बल्कि एक ही है । वे इष्ट-प्राप्ति हेतु भागते नजर आते हैं, तो कभी थकावट से चूर, सुस्त ! लेकिन चूप बैठना तो उन्होंने सीखा ही कहाँ है ? जरा सी भनक पड़ी नहीं कान में स्वार्थ - सिद्धि की, दुबारा दुगुनी ताकत से, उत्साह से, उछलते, भागते नजर आते हैं । प्रयत्नों की पराकाष्ठा से जब थक जाते हैं, तब पल दो पल के लिए ठिठक जाते हैं-रुक जाते हैं और बाद में फिर शुरु हो जाते हैं । मनुष्य के मन में जब बाह्य वस्तु (सुख, शान्ति, सम्पत्ति आदि) की प्राप्ति और प्राप्त वस्तु संजोये रखने के विचार - विकल्प पैदा होते हैं, तब उसकी आत्मा क्षुब्ध हो उठती है और अशान्ति, क्लेश संताप, व्यथा और वेदना का वह मूर्तिमान स्वरूप धारण कर लेती है ।
जबकि पूर्णानन्दी आत्मा प्रशान्त, स्थिर - महोदधि सदृश स्थितप्रज्ञ और स्थिर होती है । उसमें न कहीं विकल्प के दर्शन होते हैं और न ही अशान्ति का नामो-निशान । ना क्लेश होता है और ना ही किसी प्रकार का संताप ! न वहाँ अनीति — अन्याय के लिये कोई स्थान है, ना ही दुराचार, चोरी अथवा रागद्वेष का स्थान । पूर्णानन्दी आत्मा के अथाह समुद्र में अनन्य, अमूल्य, ज्ञानादि गुणरत्नों के भण्डार, अक्षय कोष भरे पड़े हैं। उसी में वह स्वयं की पूर्णता समझता है । गुण - गरिमा उसके अंग-अंग से प्रस्फुटित होती है, दृष्टिगोचर होती है ।