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________________ ज्ञानसार धनधान्यादि की अत्यन्त आवश्यकता है, अतः छोड़ दिया जाए, किसी अन्य प्रसंग पर देखेंगे... ।' वह तो निर्धारित समय पर अपनी वस्तु लेकर ही रहेगा । फिर भले ही तुम लाख अपना सर पीटो, चिल्लाओ, चीखो अथवा आक्रन्दन करो । अतः कर्मोदय से प्राप्तऋद्धि-सिद्धि, सुख-समृद्धि को ही पूर्णता न मानो, यथार्थ न समझो । उसके प्रति आसक्त न रहो कि बाद में पश्चात्ताप के आँसू बहाने पड़ें । I आत्मा की जो अपनी समृद्धि है, वही सही पूर्णता है, वही वास्तविक है | उसे कोई माँगनेवाला नहीं है । माणेक - मुक्तादि रत्नों की चमक- कांति का कभी लोप नहीं होता । उसे कोई ले नहीं सकता, छीन नहीं सकता और ना ही चुरा सकता है । 1 : यह निर्विवाद तथ्य है कि आत्मा की वास्तविक सम्पत्ति-समृद्धि है ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभिता, परम शान्ति आदि । उसे प्राप्त करने हेतु और प्राप्त सम्पत्ति-समृद्धि को सुरक्षित रखने के लिये हमें भगीरथ पुरुषार्थ करना है । अवास्तवी विकल्पैः स्यात्, पूर्णताब्धेरिवोर्मिभिः । पूर्णानन्दस्तु भगवान्, स्तिमितोदधिसन्निभः ॥३॥ अर्थ : तरंगित लहरों के कारण जैसे समुद्र की पूर्णता मानी जाती है, ठीक उसी तरह विकल्पों के कारण आत्मा की पूर्णता मानी जाती है। लेकिन वह अवास्तविक है | जबकि पूर्णानन्दस्वरुप भगवान स्वयं में अथाह समुद्र सदृश स्थिर-निश्चल है । I विवेचन : अथाह समुद्र की पूर्णता उसकी लहरों से मानी जाती है, ठीक उसी भाँति आत्मा की पूर्णता उसके विकल्पों की वजह से मानी जाती है। लेकिन दोनों की पूर्णता अवास्तविक है, क्षणभंगुर, अस्थायी अल्पकालीन है, जो समय के साथ अपूर्णता में परिणत होनेवाली है । धन, बल, प्रतिष्ठा, उच्च कुल और सौन्दर्य के बल पर जो यह समझता है कि 'मैं धनवान हूँ, कुलवान हूँ, बलवान हूँ और अनुपम सौन्दर्य का घनी हूँ।'
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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