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ज्ञानसार
परम त्यागी श्रमण का वेश तुमने धारण कर लिया, अर्थात् राग-महोदधि से पार उतरने के प्रतीक स्वरुप गणवेश धारण कर लिया है... और अथाह महोदधि में तुमने छलांग लगा दी है ! त्यागी बनने मात्र से राग-सागर से तुम तिर गये, पार उतर गये, यह समझने की गंभीर भूल न कर बैठना । वस्तुतः तैरना तुमने अब शुरू किया है। लेकिन तभी तुम्हारी जीवन नौका को तुम पार कर सकोगे जब राग समुद्र में आनेवाले अवरोधों को तत्त्वदृष्टि से देखकर अपनी नौका को बचा ले जाओगे ! उनके प्रति कतई ललचाओगे नहीं बल्कि उत्तरोत्तर वैराग्यभावना को पुष्ट करते रहोगे।
त्यागी भी उसी दुनिया में जीते हैं जिस दुनिया में रागी और भोगी जीते हैं। लेकिन रागी और भोगी लोग दुनिया को बहिर्दृष्टि से देखते हैं । उसके वर्तमान पर्यायों को ही देखते हैं, जबकि त्यागी, दुनिया के त्रैकालिक पर्यायों का निरीक्षण करता है । पौद्गलिक पर्यायों के सम्बन्ध में चिंतन-मनन करता है : "क्षणविपरिणामधर्मा मर्त्यानां ऋद्धिसमुदयाः सर्वे !"
___ 'मनुष्य की ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति-वैभव सब क्षणार्ध में ही परिवर्तित होनेवाला है.... विपरीत परिणाम मे परिणत होनेवाला है।
बाह्यदृष्टि आत्मा किसी वैभवशाली, समृद्ध नगर को देख, आनन्द विभोर हो उठता है । वहाँ अन्तर्दृष्टि महात्मा सोचता है कि, 'एक दिन यह सब स्मशान में बदल जाएगा, ध्वस्त हो जाएगा । मनुष्यों की महती भीड से महकती गली
और सड़कों पर एक दिन गीदड़ और सियार के झंड उतर आएंगे ! यह नियति का अटल नियम है । सदन स्मशान में और स्मशान सदन में बदल जाता है। किसी की आनन्द भरी किल्लोल में किसी का करुण-क्रंदन और किसी के विलाप में किसी का आलाप । यह इस दुनिया की पुरानी रीत और परम्परा है, जिसे कोई बदल नहीं सकता ।
* आज के वन कल के नन्दनवन ! ★ आज का नन्दनवन कल का वन ! ★ आज की रुपसुन्दरी नवयौवना-कल की दुर्बल असहाय वृद्धा ! ★ आज की रुपहीन दूर्बलिका-कल की यौवनोन्मत्त षोडसी !