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________________ तत्त्व-दृष्टि २६३ सामग्री से मोहित करने का यथेष्ट प्रयत्न करती थी। लेकिन लाख प्रयत्नों के बावजूद भी तत्त्वदृष्टियुक्त स्थूलभद्रजी के आगे उसकी दाल न गली । वह उन्हें मोहित करने के बजाय स्वयं उनके रंग में रंग गयी ! स्थूलभद्रजी ने तत्त्वदृष्टि का अंजन कर और तत्त्वदृष्टि का अमृतपान करा कर उसे ऐसी बनादी कि उसमें आमूल परिवर्तन की उत्कट भावना पैदा हो गई । बहिर्दृष्टि की वाटिका में रहते हुए भी कोशा असार संसार से निर्लिप्त बन गयी । तात्पर्य यह है कि तत्त्वदृष्टि के बिना कोई जीव बहिर्दृष्टि की वाटिका से सही-सलामत बाहर नहीं निकल सकता । ग्रामारामादिमोहाय यद् दृष्टं बाह्यया दृशा ! तत्त्वदृष्ट्या तदेवान्त तं, वैराग्यसंपदे ॥१९॥३॥ अर्थ : बाह्यदृष्टि से देखे गये गाँव और बाग-बगीचे, मोह के कारण बनते हैं ! जबकि तत्त्वदृष्टि से आत्मा में उतारा हुआ यह सब वैराग्य प्राप्ति के लिए होता है। विवेचन : वही चिर-परिचित गांव और नगर, वही कुंज-निकुंज और उद्यान......नन्दनवन -वही परम सौन्दर्यमयी ललनाएँ, अप्सराएँ, किन्नरियाँ ! –बाह्यदृष्टि से इनकी ओर देखने पर प्रीति होती है । लेकिन इन्हें ही तत्त्वदृष्टि से देखा जाए तो मन में वैराग्य की भावना जागृत होती है। अतः हे महामार्ग के अनन्य आराधक ! तुम्हें रागी बनना है या विरागी? तुम श्रमण बन गये, विरागी हो गये, विरतिघर बन गये, लेकिन फिर भी वैराग्यमार्ग पर विजयश्री प्राप्त करना शेष है । त्याग करने मात्र से वैराग्य की प्राप्ति नहीं होती ! विरागी बनने की आंतरिक इच्छा से तुमने त्याग किया है, यह सौटक्का सच है, लेकिन वैराग्य में मस्ती प्राप्त करने का दुष्कर कार्य अभी तुम्हें त्यागी जीवन में शुरु करना है और वैराग्य की अगोचर दुनिया में धूम मचाना
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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