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अब तुमही कहो, तत्त्वदृष्टि जीव इस परिवर्तनशील दुनिया के प्रति क्या अनुरक्त बनेगा ? उसे मोह होगा या वैराग्य ? वस्तुतः तत्त्वदृष्टि धारक मनुष्य के मन में संसार के पदार्थों के प्रति मोह होगा ही नहीं ! क्योंकि तत्त्वदृष्टि अपने आप में मोह - जनक नहीं, बल्कि मोहमारक जो है । तत्त्वदृष्टि का चिंतन नित्यप्रति वैराग्य - प्रेरक होता है ! यहाँ पूज्य उपाध्यायजी महाराज संसार के मोहोत्तेजक पदार्थों का, तत्त्वदृष्टि से चिंतन कराते हैं । आइए, हम भी उस चिंतन में प्रवेश करें !
तत्त्व-दृष्टि
बाह्ययदृष्टेः सुधासारघटिता भाति सुन्दरी । तत्त्वदृष्टेस्तु साक्षात् सा विण्मुत्रपिठरोदरी ॥१९॥४॥
अर्थ : बाह्यदृष्टि को नारी अमृत के सार से बनी लगती है, जबकि तत्त्वदृष्टि को वह स्त्री मलमूत्र की हंडिया जैसी उदरवाली प्रतीत होती है ।
विवेचन : सुंदरी !
जगत-निर्माता ब्रह्मा ने अमृत के सार से सुंदर नारी को बनाया है ! 'नैषधीय चरित' के रचयिता कवि हर्ष कहते हैं: "द्रौपदी ऐसी असीम सुन्दरी थी कि जिसकी काया का गठन ब्रह्मा ने चन्द्र के गर्भभाग से किया था । अतः चन्द्र का मध्य भाग काला दिखायी देता है ।" सभी विख्यात कवियों ने नारीदेह का वर्णन करने में अपनी लेखनी और कल्पना की कसौटी कर दी है.... असार संसार में यदि कोई सारभूत है तो सिर्फ सारंगलोचना ! मृगनयना सुन्दरी
है ।
'नारी' का यह मनोहारी दर्शन, बाह्यदृष्टिवाले मनुष्यों का दर्शन है ! उसी नारी का अवलोकन अन्तदृष्टि महात्मा किस रूप में करते हैं, जानते हो ? मूत्र की सिर्फ एक हंडिया !
— विष्ट
- नरक का दिया !
-कपट की काल-कोठरी !
क्योंकि वे नारी-देह की सुकोमल धवल त्वचा के भीतर झांकते हैं और