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________________ २६० ज्ञानसार | रागद्वेष का कारण बनती है । चर्म - चक्षु से संसार मार्ग का दर्शन होता है। उससे मोक्षमार्ग का दर्शन नहीं होता । मोक्ष मार्ग के दर्शन हेतु तात्त्विक दृष्टि की आवश्यकता है । इसी तात्त्विक दृष्टि को आनन्दघनजी महाराज 'दिव्य- विचार' कहते हैं । I चरम नयणे करी मारग जोवतां भुल्यो सयल संसार जेणे नयने करी मारग जोइए नयन ते दिव्य विचार पंथsो निहालुं रे बीजा जिन तणो... अरुपी तात्त्विक दृष्टि से ही अरुपी आत्मा का दर्शन कर सकते हैं । क्योंकि तात्त्विक दृष्टि और आत्मा दोनों अरुपी हैं। यानी अरुपी का अरुपी से ही दर्शन सम्भव है । जैसे पौद्गलिक - दृष्टि से पुद्गल का दर्शन ! चर्मदृष्टि... पुद्गलदृष्टि... चरम नयन... ये सब शब्दपर्याय हैं ! आत्मदर्शन हेतु इन दृष्टियों का उपयोग नहीं होता, उसके लिए अरुपी ऐसी तात्त्विक दृष्टि ही उपयोगी है | इसके खुलते ही आत्म-प्रशंसा अथवा परिनन्दा जैसी बुरी लतें छूट जाती हैं । तत्त्वदृष्टि सिर्फ खुलती है सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की उपासना एवं आराधना से ! 1 1 हमेशा खयाल रखो कि तत्त्वभूत पदार्थ एक मात्र आत्मा ही है । शेष सब पारमार्थिक दृष्टि से असत् है । लेकिन यह जीव अनादिकाल से तत्त्वभूत आत्मा का विस्मरण कर अतत्त्वभूत पदार्थों के पीछे बावरा बना भटकता रहा है, दुःखी हुआ है, नारकीय यंत्रणाएँ सहता रहा है और नानाविध विडम्बनाओं का शिकार बना है । फिर भी जिनेश्वर भगवन्त की तत्त्वदृष्टि उसे मिली नहीं । I जिस दृष्टि से आत्मा के प्रति अनुराग की भावना पनपती है, वह तात्त्विक दृष्टि कहलाती है, जबकि जिससे जड़ - पुद्गल के प्रति अनुराग पैदा होता है वह चर्मदृष्टि है । केवलज्ञानी भगवन्त की दृष्टि पूर्ण तत्त्वदृष्टि होती है। उससे सकल विश्व के चराचर पदार्थों का वैकालिक दर्शन होता है । वह दर्शन द्वेषरहित होता है,
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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