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________________ तत्त्व-दृष्टि २६१ हर्ष-शोक से मुक्त होता है । आनन्द-विषाद से रहित होता है । अरुपी आत्मा का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है। केवलज्ञानी भगवन्तो ने जिस मार्ग का अवलम्बन कर ऐसा पूर्ण तत्त्व-दृष्टि से युक्त केवलज्ञान प्राप्त किया है उसी मार्ग पर चल कर ही केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और वह मार्ग है सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का।। भूल कर भी कभी शब्द, रुप, रस, गन्ध और स्पर्श के मोह से ग्रस्त न बनो ! आत्मस्वरुप में सदा-सर्वदा लीन रहो ! तभी पूर्णता प्राप्त होगी । सभी उपदेशों का यही सारांश है । तात्पर्य है । अनादिकालीन बुरी आदतों को, मन को समझा कर छोडने का पुरुषार्थ करो । नये सिरे से नयी आदतों का श्रीगणेश करो । आत्म-स्मरण, आत्मरति और आत्मस्वरूप में लीनता के लिए सम्यक् श्रुतज्ञान में लीन रहो; साथ ही सम्यक् चारित्र से जीवन को संयमी बनाओ । भ्रमवाटी बहिर्दृष्टिभ्रंमच्छाया तदीक्षणम् । अभ्रान्तस्तत्त्वदृष्टिस्तु नास्यां शेते सुखाशया ॥१९॥२॥ अर्थ : बाह्य दृष्टि भ्रान्ति की वाटिका है और बाह्य दृष्टि का प्रकाश भ्रान्ति की छाया है। लेकिन भ्रान्तिविहीन तत्त्व दृष्टिवाला जीव भूलकर भी भ्रम की छाया में नही सोता । विवेचन : बाह्यदृष्टि, -भ्रान्ति के विषवृक्षों से युक्त वाटिका ! -भ्रान्ति के वृक्षों की छाया भी भ्रान्ति ही है ! क्योंकि विषवृक्षों की छाया भी आखिर विष ही होता है । -बाह्यदृष्टि भ्रान्तिरुप और बाह्यदृष्टि का दर्शन भी भ्रान्ति-स्वरुप ही होता फलतः भ्रान्ति के विषवृक्षों की छाया में तत्त्वदृष्टि आत्मा आराम से नहीं सोती, निर्भय बनकर विश्राम नहीं करती । क्योंकि भलिभांति मालुम है कि यहाँ सोने में, विश्राम करने में जान का जोखिम है। सम्भव है कभी-कभार उसे विषवृक्षों
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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