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१९. तत्त्व-दृष्टि
_ 'जैसी दृष्टि वेसी सृष्टि !' यह कहना सहज है ! हर कोई सरलता के साथ इसका उच्चारण कर सकता है ! लेकिन स्व-दृष्टि को परिवर्तित कर सृष्टि का नव सर्जन करने कौन तैयार है ? किस दृष्टि के कारण हमें भव-भ्रमणाओं में उलझना पड़ता है और किस दृष्टि की पतवार थाम कर हम भव-सागर की उत्ताल तरंगों को मात कर, मोक्ष की ओर निर्विघ्न प्रस्थान कर सकते हैं ? किस दृष्टि से हमें परमानन्द की प्राप्ति होती है और किस दृष्टि के कारण विषयानन्द की लोलुपता बढ़ती है ? इसका रहस्य जानने के लिये प्रस्तुत अष्टक को खूब ध्यानपूर्वक पढो और उसका चिंतन-मनन करो ।
रूपे रूपधती दृष्टिदृष्टवा रूपं विमुह्यति । मज्जष्यात्मनि नीरूपे तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी ॥१९॥१॥
अर्थ : रूपी दृष्टी रूप को निहारकर मोहित हो जाती है, जबकि रुप रहित तत्त्वदृष्टि रूपरहित आत्मा में लीन हो जाती है।
विवेचन : तत्त्वदृष्टि ! वासनाओं का निर्मूलन करनेवाली तीक्ष्ण दृष्टि !
हमें अपनी दृष्टि को तात्विक बनाना है, अर्थात् विश्व के पदार्थों का दर्शन तात्त्विक दृष्टि से करना है ! तात्त्विक दृष्टि से किये गये पदार्थ-दर्शन में रागद्वेष नहीं होते, असत्य नहीं होता ।
चर्मचक्षु चमड़े का सौन्दर्य निहार कर मोहित होती है, मुग्ध होती है ।