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ज्ञानसार
किसी के आधार पर, परभाव पर जिन्दगी बसर करता ही नहीं । तब फिर स्वउत्कर्ष और परापकर्ष की कल्पनायें बेचारी हिमखंड की तरह पिघल ही जायें न ?
देश, काल और पर-द्रव्य के आधार पर जीवन व्यतीत करनेवाला स्वोत्कर्ष को, स्वाभिमान को नष्ट नहीं कर सकता । परापकर्ष परनिन्दा की बुरी आदत को नियंत्रित नहीं कर सकता अभिमान को नेस्तनाबूद करने के लिये अनन्त इच्छाएँ और कामनाओं को निरपेक्षता की आग में डाल देना होगा । साथ ही, अपेक्षारहित, परद्रव्यों की अपेक्षा से मुक्त जीवन बिताने का दृढ संकल्प करना होगा । तभी स्वमहत्ता की शहनाई बजनी बन्द होगी और पर-निन्दा के बिगुल की आवाज शमते देर नहीं लगेगी । . -योगी बनना है ?
योगी का जीवन बाहर से कठोर, लेकिन भीतर में शान्त, प्रशान्त और कोमल होता है। ऐसे जीवन की क्या चाह जग पड़ी है ? विद्यमान परद्रव्यसापेक्ष जीवन के प्रति क्या घृणा उत्पन्न हुई है ? रात-दिन परनिन्दा में मग्न जीवन से क्या घबरा गये हो ? पर-परिणति के प्रांगण में सतत सम्पन्न प्रेमालाप और कामुक चेष्टाओं से क्या नफरत हो गयी है ? और क्या, योगी का आन्तरिक प्रसन्नता से सराबोर और आत्मस्वरूप की रमणतावाला जीवन ललचाता है ? तुम्हें अपनी ओर आकर्षित करता है ? --
तब निःसन्देह तुम 'योगी' बनने लायक हो । तुम्हे कदम-कदम पर योगी-जीवन के परमानन्द का अनुभव होगा। अभिमान का नशा काफूर हो जाएगा और आत्मा के अनंतगुण प्रकट हो जायेंगे ।