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अनात्मशंसा
बने रहना है। क्योंकि हम साधु-वेष की मर्यादा के बन्ध में जो हैं ।
हे महात्मन् ! भूलकर भी गुणों का नाश न करो और ना ही अभिमान ... मिथ्याभिमान की संगत करो !
निरपेक्षानवच्छिन्नानन्त चिन्मात्रमूर्तयः ।
योगिनो गलितोत्कर्षापकर्षानल्पकल्पना : ॥ १८ ॥ ८ ॥
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अर्थ : योगी का स्वरूप अपेक्षारहित, देश की मर्यादा से मुक्त, काल की मर्यादा से रहित, ज्ञानमय होता है । उनकी उत्कर्ष की कल्पनायें गलित हो गयी होती हैं ।
विवेचन : योगी ! जो आत्मस्वरूप में लीन और परमात्म-स्वरूप की झंखना करनेवाला होता है उसे देश-काल के बन्धन नहीं होते हैं । वह स्वउत्कर्ष से और पर- अपकर्ष से परे होता है ।
आत्मा के अतल महोदधि में अनंत ज्ञान में योगी सदा रमण करता है । पर-भाव, पर-पर्याय अथवा पौद्गलिक विविध रचनाओं में योगी की चेतना जाती नहीं, लुब्ध नहीं होती, आकर्षित नहीं होती । उसके मन में किसी प्रकार की कोई झंखना, कामना अथवा अभिलाषा के लिये स्थान नहीं होता । वह निरन्तर परमात्म-स्वरूप की अन्तिम मंजिल पाने हेतु प्रवृत्तिशील रहे । उसे किसी की परवाह नहीं होती, ना ही कोई अपेक्षा । वह पूर्णतया निरपेक्ष भाव का प्रतीक होता है । उसमें भव-सागर पार उतरने के लिये आवश्यक उत्कट निरपेक्षता होती है ।
'निरविक्खो तर दुत्तर भवोयं । 'निरपेक्ष तिरे दुस्तर भवसागर को !'
किसी राष्ट्र, नगर अथवा गांव - विशेष का उन्हें आग्रह नहीं । किसी मौसम का उन्हें बन्धन नहीं । शरदऋतु हो या वर्षाकाल, या फिर ग्रीष्म ऋतु, उनकी निर्वाणयात्रा पर कोई प्रभाव नहीं ! अरे, किसी भाव - विशेष की भी उन्हें अपेक्षा नहीं । 'कोई मुझे योगी माने', महात्मा माने या महाश्रमण माने ।' ऐसा आग्रह नहीं । कहने का तात्पर्य यह है कि उन्हें किसी बात की कोई अपेक्षा नहीं होती ।