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________________ २५६ ज्ञानसार भव-भवर में फँस गया । वह मिथ्याभिमान के कारण अपनी सुध-बुध खो बैठा। संस्कार और शिक्षादीक्षा भुला बेठा । परमोपकारी परमात्मा महावीर देव के अनन्त उपकारों को विस्मृत कर दिया। विनय- विवेक से भ्रष्ट बन गया। साथ ही अपनी अल्पज्ञता का ख्याल खो बैठा । न जाने उसने कितने गुण खो दिये । गुणों का 'नाश कर बैठा । अरे, अभिमान के प्रचंड वायु के झोंकों की लपेट में आकर असंख्य गुणरुपी महल ध्वस्त हो जाते हैं । अभिमान-वायु के उद्गम-स्थान पर ही क्यों न 'सील' मार दी जाए ? कुल, रुप, बल, बुद्धि यौवन वगैरह अन्य जीवों से तुम्हारे पास बढ़-चढ़कर होंगे। यदि इस पर तुमने उत्कर्ष किया तो कुत्सित हवा के झोंके उठते विलम्ब नहीं होगा । यदि तुम श्रमण हो तो शास्त्रज्ञान, शास्त्राभ्यास, शासन - प्रभावकता, वक्तृत्वशक्ति लेखन-कला, शिष्य - परिवार, भक्त - समुदाय और गच्छाभिमान... आदि छोटी-मोटी बातों का व्यामोह पैदा होते देर नहीं लगेगी। ऐसे समय यदि तुमने तात्त्विक चिन्तन द्वारा उन सब बातों को 'तुच्छ' न माना और शुद्ध नय की दृष्टि से 'समानता' का विचार न किया, तो मिथ्याभिमान की भूत - लीला से तुम आक्रान्त हो जाओगे । फलतः तुम्हारे मे रहे गुण, पानी के बुद बुदे की तरह नष्ट होते पल की भी देर नहीं लगेगी। उसमें एक नये अनिष्ट का जन्म होगा । गुणरहित होने के उपरान्त भी 'मैं गुणी हूँ' ऐसा बताने हेतु और अपनी इज्जत बचाने के लिये दंभ करना पडेगा । तुम्हें दंभी बनना होगा ! तुम जैसे नहीं हो, वैसा प्रदर्शन करने के लिये प्रयत्न करोगे । तनिक सोचो, आत्मा का यह कैसा अध:पतन ? क्या यह भी नये सिरे से समझाना होगा ? 1 प्रायः ऐसा देखा गया है कि दुष्कर प्रयत्न और घोर तपश्चर्या के फलस्वरुप आत्मा में गुणों का प्रादुर्भाव होता है । यदि उनका यथोचित संरक्षण और संवर्धन न किया जाए, तो समझ लेना चाहिये कि गुणों का सही मूल्यांकन करना हम भूल गये हैं । जो मनुष्य गुणों का मूल्यांकन करना भूल जाए, उसके गुण नष्ट होते समय नहीं लगता । गुणों के मारक हमेशा इसी ताक में रहते हैं । उनको तो केवल अवसर मिलना चाहिए । वे अपनी पूरी शक्ति के साथ जीव पर पील पड़ेगे, टूट पड़ेगे और गुणों का संहार करके ही दम लेंगे । अतः स्वपर्याय अथवा पर-पर्याय का अभिमान नहीं करना है । सदा-सर्वदा, निरभिमानी
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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