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अनात्मशंसा
२५५ महामुनि को सदा मध्यस्थ भाव में बनाये रखने में आधारभूत सिद्ध होता है। यह दर्शन उसे आत्म-उत्कर्ष के गहरे समुद्र में गिरने नहीं देता और फलस्वरुप आत्मा की स्वभावदशा और विभावदशा का चिन्तन, महामुनि का अमोघ शस्त्र बन जाता है। अमोघ शस्त्र के सहारे वह अभिमान की उत्तुंग चोटियों को चकनाचूर कर देता है। यदि हर एक मुनि इसी चिन्तन-पथ के पथिक बन, साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ते रहें, तो अभिमान को क्या ताकत है कि वह उनके मार्ग का रोड़ा बन सके ?
क्षोभं गच्छन् समुद्रोऽपि, स्वोत्कर्षपवनेरितः । गुणौधान् बुबुदीकृत्य, विनाशयसि किं मुघा ? ॥१८॥७॥
अर्थ : मर्यादा सहित होने के बावजूद भी, अपने अभिमान रुपी वायु से प्रेरित एवं व्याकुलता को प्राप्त हुआ, अपनी गुण-राशि को पानी के बुदबुदे का रुप देकर व्यर्थ में नष्ट क्यों करता है ?
विवेचन : ...
- वह साधु है। - साधु-वेश की मर्यादा में है।
अभिमान वायु के प्रचंड झोंके उठ रहे हैं । आत्म-समुद्र में तूफान आ गया है । गुण-राशि का अपार जल बुदबुदा बन नष्ट हो रहा है, खत्म हो रहा है । क्या तुम्हें यह शोभा देता है ? तुम अपनी मर्यादा तो समझो !
यदि यह तथ्य समझ में आ जाये कि 'अभिमान की वायु गुणों का नाश करती है, तो गुणों के नाश की प्रक्रिया रुक जायेगी। पूज्य उपाध्यायजी महाराज का आदेश है कि गुणों का संरक्षण और संवर्धन करते हुए भी अभिमान नहीं करें।
तू साधु का स्वांग रचकर, साधु-वेश धारण कर, अभिमान करता है ? व्यर्थ ही गणों का नाश क्यों करता है? क्या तेरी समझ में कतई नहीं आता कि अभिमान के कारण गुणों का नाश होता है ? जानते नहीं कि अभिमानवश जमालि