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________________ २५४ ज्ञानसार अथवा किन्हीं गुणों की प्रचुरता हो, तभी अभिमान जगे न ? आत्मा के शुद्ध पर्यायों का विचार शुद्ध नय की दृष्टि से ही किया जाता है। ऐसी स्थिति में सभी आत्मायें ज्ञानादि अनन्त गुणों से युक्त, अरूपी... दोषविरहित और समान प्रतीत होती हैं । दूसरी आत्मा की तुलना में हमारी आत्मा में एकाध गुण भी अधिक नहीं होता... | किसी आत्मा में दोष के दर्शन नहीं होते । फिर भला, उत्कर्ष किस बात पर करना चाहिये ? सम्भव है, शुद्ध स्वरूप के चिन्तन में तो अभिमान के अश्व पर सवार होना सर्वथा दुष्कर है, लेकिन शुद्ध पर्यायों के साथ-साथ अशुद्ध पर्याय भी विद्यमान होते हैं । अशुद्ध पर्यायों में समानता नहीं होती है । तब अभिमान का टटू रेस के घोड़े का रुप धारण करने में विलम्ब नहीं करता और पागल जीव उस पर सवार हो जाता है ! . लेकिन महामुनि अशुद्ध पर्यायों से कोसों दूर रहते हैं। अपने आत्मप्रदेश से अशुद्ध पर्यायों को देश-निकाला दे देते हैं । तब वे अभिमान कैसे करेंगे? भले ही दूसरों के मुकाबले अलौकिक रुप-सौन्दर्य हो, विशिष्ट प्रकार का लावण्य हो, शास्त्र ज्ञान और परिशीलन में महापण्डित हो, अधिक प्रज्ञा हो, अन्य आत्माओं से बढ़-चढ़कर शिष्य-संपदा हो, अथवा मान-सम्मान का जयघोष सारे आलम में गूंजता हो, उनके (महामुनि के) लिये यह सब तुच्छ और क्षणिक होता है । सर्वोत्तम महामुनि भूलकर भी कभी क्षणिक वस्तु पर अभिमान नहीं करते । - यदि पड़ौसी के बजाय तुम्हारे घर में अधिक गंदगी हो, तुम्हारा घर ज्यादा गंदा और मटमैला हो, तो क्या अभिमान करोगे ? 'तुम्हारे मकान से मेरे मकान में ज्यादा कचरा है !' कहते हुए क्या तुम्हारा सीना फूलकर कुप्पा हो जाता है ? नहीं, हर्गिज नहीं । क्योंकि कचरे को तुम तुच्छ समझते हो । कचरे की अधिकता पर अभिमान नहीं होता ! तब भला, जो महामुनि समस्त वैभाविक पर्यायों को तुच्छ समझते हैं, एक प्रकार की गंदगी समझते हैं, उस पर और उसकी अधिकता पर भूलकर भी क्या वे अभिमान करेंगे ? - शुद्ध पर्यायों में समानता का दर्शन, - अशुद्ध पर्यायों में तुच्छता का दर्शन
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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