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________________ अनात्मशंसा २५३ के पाप से बचने का पुरुषार्थ करें । उसके लिये उन्हें पुद्गल-पर्यायों का गुणगान करना बन्द करना चाहिये । सदा सर्वदा ज्ञानानन्द के अतल सरोवर में निमग्न हो जाना चाहिये । सावधान ! स्व-प्रशंसा के साथ पर-निन्दा प्रायः जुड़ी हुई होती है । एक बार स्व-प्रशंसा एवं परनिन्दा का आनन्द प्राप्त होने लगाकि ज्ञानानन्द का प्रवाह मंद होने लगेगा, वैसे-वैसे आत्म-तत्त्व का विस्मरण होता जाएगा और तुम्हारे जीवन में पुद्गल-तत्त्व प्रधान बन जाएगा । -मुनि तो चिदानन्दघन होता है। -उसे पर-पर्याय का अभिमान नहीं होता । —वह ज्ञानानन्द-महोदधि में विलसित रहता है । -मुनि को निरभिमानता इसीलिये होती है। . शुद्धाः प्रत्यात्मसाम्येन, पर्यायाः परिभाविताः । -अशुद्धाश्चापकृष्टत्वाद्, नोत्कर्षाय महामुनेः ॥१८॥६॥ अर्थ : प्रत्येक आत्मा में शुद्ध तप की दृष्टि से प्रमाणित शुद्ध-पर्याय समान रुप से विद्यमान होते हैं और अशुद्ध-विभावपर्याय तुच्छ होने से महामुनि (सभी नयों में मध्यस्थ परिणतिवाले) उस पर कभी अभिमान नहीं करते । विवेचन : महामुनि तत्त्वचिन्तन के माध्यम से अभिमान पर विजयश्री प्राप्त करते हैं । न जाने यह चिन्तन कैसा तो अद्भुत, अपूर्व और सत्य है, यही तो देखना है। महामुनि शुद्ध नय की दृष्टि से आत्म-दर्शन करते हैं । पहले अपनी आत्मा को देखते हैं, बाद में अन्य आत्माओं को देखते हैं । उनको किसी प्रकार का भेद... अन्तर... उच्च-नीचता... भारी-हल्कापन का दर्शन नहीं होता । हर आत्मा के शुद्ध पर्याय समान दिखायी देते हैं । अन्य आत्मा के बजाय अपनी आत्मा में कोई विशेषता अथवा अधिकता दृष्टिगोचर नहीं होती । तब अभिमान क्यों और किस लिये किया जाए ? दूसरों के मुकाबले हमारे में कोई विशेषता
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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