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ज्ञानसार
हैं यह उसकी सृष्टि है । पुद्गल की ये परिवर्तनशील अवस्थायें हैं।
आत्मन् ! पुद्गल की इन रचनाओं से भला, तुझे क्या लेना-देना? जरा, ध्यान से सुन । ये कोई तेरी अपनी अवस्थायें नहीं हैं, ना ही तेरी सृष्टि ! ये तो 'पर' हैं, परायी हैं । मतलब, जो कुछ भी है, दूसरों का है। इनकी समृद्धि से तू अपने आपको श्रीमंत-समृद्ध न मान । ना ही इन पर मिथ्या अभिमान कर। इसके अभिमान से उत्पन्न आनन्द तुम्हारे किसी काम का नहीं है। अत: बेहतर यही है कि तुम इससे सर्वथा अलिप्त रहो ।
हे चिदानन्दघन ! तुम ज्ञानानन्द से परिपूर्ण हो । पुद्गलानन्द का सारा विष नष्ट हो गया है । ज्ञानानन्द की मस्ती की तुलना में तुम्हें इन पुद्गलों की परिवर्तनशील अवस्थाओं से प्राप्त आनन्द तुच्छ प्रतीत होता है । वह आनन्द नहीं, बल्कि निरा पागलपन लगता है । सारी दुनिया भले ही तुझे पुद्गल-पर्याय की समृद्धि के कारण सुन्दर समझे, सौन्दर्यशाली माने, नगरपति समझे, पुत्र-पुत्री और पत्नी के कारण पुण्यशाली करार दे, अलौकिक संपदा का स्वामी माने । लेकिन दुनिया के इस पर-पर्याय-दर्शन से उत्पन्न कीर्ति तुम्हारा एक रोम भी खड़ा नहीं कर सकती, तुम्हें रोमांचित नहीं कर सकती। क्योंकि तुमने मन ही मन दृढ संकल्प कर लिया है : "शरीर का रूप और लावण्य, धन-धान्यादि संपदा, पुत्र-पौत्रादि परिवार... ये सब पुद्गलजन्य हैं, ना कि मेरा है। मेरे साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं ।"
तब भला, उस पर अभिमान करने का प्रश्न ही कहाँ खड़ा होता है ? जब पर-पर्याय का मूल्यांकन नहीं रहा, तब उस पर अभिमान करने से क्या मतलब?
पर-पुद्गल के पर्यायों का मूल्यांकन बन्द करो । ज्ञानानन्द को अखंड रखो।
आत्मप्रशंसा के मिथ्याभिमान से बचने के लिये ज्ञानी पुरुषों ने दो उपाय सुझाये हैं । मोक्ष-मार्ग की ओर जिसने प्रयाण शरू कर दिया है, व्रत-महाव्रतमय जीवन जीने का जिस ने संकल्प कर लिया है और जो तपश्चर्या तथा त्याग का उच्च मूल्यांकन करते हैं, ऐसी मुमुक्षु आत्माओं को चाहिए कि वे हमेशा स्वप्रशंसा