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________________ २५२ ज्ञानसार हैं यह उसकी सृष्टि है । पुद्गल की ये परिवर्तनशील अवस्थायें हैं। आत्मन् ! पुद्गल की इन रचनाओं से भला, तुझे क्या लेना-देना? जरा, ध्यान से सुन । ये कोई तेरी अपनी अवस्थायें नहीं हैं, ना ही तेरी सृष्टि ! ये तो 'पर' हैं, परायी हैं । मतलब, जो कुछ भी है, दूसरों का है। इनकी समृद्धि से तू अपने आपको श्रीमंत-समृद्ध न मान । ना ही इन पर मिथ्या अभिमान कर। इसके अभिमान से उत्पन्न आनन्द तुम्हारे किसी काम का नहीं है। अत: बेहतर यही है कि तुम इससे सर्वथा अलिप्त रहो । हे चिदानन्दघन ! तुम ज्ञानानन्द से परिपूर्ण हो । पुद्गलानन्द का सारा विष नष्ट हो गया है । ज्ञानानन्द की मस्ती की तुलना में तुम्हें इन पुद्गलों की परिवर्तनशील अवस्थाओं से प्राप्त आनन्द तुच्छ प्रतीत होता है । वह आनन्द नहीं, बल्कि निरा पागलपन लगता है । सारी दुनिया भले ही तुझे पुद्गल-पर्याय की समृद्धि के कारण सुन्दर समझे, सौन्दर्यशाली माने, नगरपति समझे, पुत्र-पुत्री और पत्नी के कारण पुण्यशाली करार दे, अलौकिक संपदा का स्वामी माने । लेकिन दुनिया के इस पर-पर्याय-दर्शन से उत्पन्न कीर्ति तुम्हारा एक रोम भी खड़ा नहीं कर सकती, तुम्हें रोमांचित नहीं कर सकती। क्योंकि तुमने मन ही मन दृढ संकल्प कर लिया है : "शरीर का रूप और लावण्य, धन-धान्यादि संपदा, पुत्र-पौत्रादि परिवार... ये सब पुद्गलजन्य हैं, ना कि मेरा है। मेरे साथ इनका कोई सम्बन्ध नहीं ।" तब भला, उस पर अभिमान करने का प्रश्न ही कहाँ खड़ा होता है ? जब पर-पर्याय का मूल्यांकन नहीं रहा, तब उस पर अभिमान करने से क्या मतलब? पर-पुद्गल के पर्यायों का मूल्यांकन बन्द करो । ज्ञानानन्द को अखंड रखो। आत्मप्रशंसा के मिथ्याभिमान से बचने के लिये ज्ञानी पुरुषों ने दो उपाय सुझाये हैं । मोक्ष-मार्ग की ओर जिसने प्रयाण शरू कर दिया है, व्रत-महाव्रतमय जीवन जीने का जिस ने संकल्प कर लिया है और जो तपश्चर्या तथा त्याग का उच्च मूल्यांकन करते हैं, ऐसी मुमुक्षु आत्माओं को चाहिए कि वे हमेशा स्वप्रशंसा
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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