SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनात्मशंसा २५१ यह उसका मिथ्या प्रलाप ही है। पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने प्रस्तुत विषम ज्वर को नेस्तनाबूद करने का उपाय भी सुझाया है : "जिस विषय का तुम्हें अभिमान है जिस पर तुम्हें नाज है, उस विषय में निष्णात / पारंगत बने प्राचीन महापुरुषों के सम्बन्ध में सोचो, विचार करो और उनकी सर्वोत्तम सिद्धि के साथ अपनी तुलना करो ।" । सचमुच प्रस्तुत विचार औषधि चमत्कारिक एवं अनूठी है । जब तुम अपने को उन महापुरुषों के मुकाबले खड़ा पाओगे तो स्वयं को बौने से कम नहीं पाओगे। तुम्हें अपना अस्तित्व नहींवत् प्रतीत होगा और क्षणार्ध में ही तुम्हारा अभिमानज्वर 'नॉरमल' हो जाएगा ! ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, बल, कला, त्याग, व्रत, तपादि विषयों में पारंगत, सिद्ध महापुरुषों के स्मरण मात्र से तुम आश्चर्यचकित रह जाओगे । तुम्हारा अभिमान-ज्वर शीध्र उतर जायेगा । ठीक वैसे ही आज के युग में भी हम से अधिक विद्वान् और पारंगत कई महापुरुषों का विचार करना जरूरी है : “इन सबकी तुलना में भला, मुझ में अधिक क्या है ? यदि कुछ नहीं, तब यों ही अभिमान करना कहाँ तक उचित है ?" शरीर-रूप-लावण्य-ग्रामारामधनादिभिः । उत्कर्षः परपर्यायश्चिदानन्दधनस्य कः ? ॥१८॥५॥ अर्थ : शरीर के रूप-लावण्य, गाँव, बाग-बगीचे, धन-धान्यादि और पुत्र-पौत्रादि समृद्धि रूप परद्रव्य के पर्यायों से भला ज्ञानानन्द से परिपूर्ण आत्मा को अभिमान कैसा? विवेचन : परपर्याय ! आत्मा से जो पर है, भिन्न है, उसके पर्याय । शारीरिक सौन्दर्य, रूप-लावण्य, ग्राम-जगर, उद्यान, धन-धान्यादि संपदा और पुत्र-पौत्रादि... ये सब पर-पर्याय है । आत्मा से भिन्न जो पुद्गल
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy