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________________ अनात्मशंसा ★ दूसरों के गुण देखने की वृत्ति नहीं रहती । ★ दूसरों के गुण सुनकर द्वेष पैदा होता है । ★ घोर कर्म - बन्धन के शिकार बनते हैं । २४९ दूसरों की नजर में अपने आप को गुणवान, बुद्धिशाली, सर्वोत्तम, सज्जन दिखाई देने की इच्छा, जीव को 'स्व-प्रशंसा' करने के लिए प्रेरित करती है । ऐसी इच्छा सर्वजन साधारण है। इससे दूर रहे बिना जीव पाप के अभेद्य परकोटे को भेद नहीं सकता । लेकिन इसके मूल में जो भावना काम कर रही है, वह तो सौ फीसदी गलत और अनिच्छनीय है। मैं अपनी प्रशंसा करूँगा तब दूसरे मुझे सज्जन, गुणवान समझेंगे।' क्या यह रीत अच्छी है ? सच तो यह है कि इस तरह स्व-प्रशंसा से सर्वत्र अपना विज्ञापन करना कोई अच्छी बात नहीं है, ना ही प्रभावशाली भी। अलबत्ता, लोकतंत्र के युग में चुनाव में खड़े प्रत्याशी / उम्मीदवार को जी भरकर अपनी प्रशंसा का राग आलापना पड़ता है । विद्यमान परिस्थिति में धर्मक्षेत्र, सामाजिक क्षेत्र, शैक्षणिक क्षेत्र और राजनैतिक क्षेत्र में सत्ता और स्वामित्व प्राप्त करने के लिए स्वप्रशंसा एक रामबाण उपाय माना गया है। I I हालाँकि सांसारिक क्षेत्र में 'स्व-प्रशंसा', भले ही आवश्यक मानी गयी हो, लेकिन धर्म-क्षेत्र में यह सबसे बड़ा अवरोध है । यदि हम मोक्षमार्ग के पथिक हैं अथवा उस मार्ग पर चलने के अभिलाषी हैं, तो 'स्व-प्रशंसा' का परित्याग करने की हमें प्रतिज्ञा करनी चाहिए । सम्भव है कि स्व-प्रशंसा' से दूर रहने पर तुम्हें लगेगा कि दुनिया में तुम्हारी सही पहचान, वास्तविक मूल्यांकन नहीं हो रहा है । लेकिन एक समय ऐसा आ जाएगा, जब तुम्हारे गुण समस्त विश्व के लिए एकमेव आलम्बन सिद्ध होंगे। दुनिया के समस्त प्राणी तुम्हारे गुणों की रस्सी थामकर पापकुंड से बाहर निकल जायेंगे। धीरज का फल मीठा होता है । जल्दबाजी करनेवाले व्यक्ति के लिए नुकसानदेह है और हाँ, दूसरों का गुणानुवाद करने की प्रवृत्ति निरन्तर जारी रखना, बीच में ही स्थगित नहीं कर देना । उच्चत्वदृष्टिदोषोत्थस्वोत्कर्षज्वरशान्तिकम् । पूर्वपुरुषसिंहेभ्यो, भृशं नीचत्वभावनम् ॥१८॥४॥
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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