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________________ २४८ ज्ञानसार करनेवाली है। आलंबिता हिताय स्युः परैः स्वगुणरश्मयः । अहो स्वयं गृहीतास्तु, पातयन्ति भवोदधौ ॥१८॥३॥ अर्थ : यदि दूसरे व्यक्ति ने तुम्हारे गुण रुपी रस्सी को थाम लिया, तो वह उसके लिए हितावह है, लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि यदि स्वयं गुणरूपी रस्सी को थाम लिया तो भव-समुद्र में डूबा देती है। विवेचन : तुम्हारे में गुण हैं ? उन गुणों को दूसरों को देखने दो । दूसरों को उनका गुणानुवाद करने दो । वे उक्त गुणदर्शन, गुणानुवाद और गुण–प्रशंसा की रस्सी को पकड़ कर भव-सागर से पार हो जायेंगे । लेकिन तुम अपने गुणों की प्रशंसा अथवा दर्शन करने की कोशिश भूलकर भी न करो । यदि तुम अपनी प्रशंसा खुद करने की बुरी लत में फँस गये, तो तुम्हारा बेडा संसार-सागर में गर्क होते देर नहीं लगेगी। तुम्हारी यह लत, आदत तुम्हें भवोदधि की अथाह जलराशि मे डुबाकर ही रहेगी। वैसे देखा जाए तो गुण–प्रशंसा ऐसी शक्ति है, जो भवोदधि से तिरा सकती है और डुबा भी सकती है। हाँ, कौन किसके गुणों की प्रशंसा करता है, यह सब उस पर निर्भर है। खुद ही अपनी प्रशंसा करने भर की देर है कि डुब गये समझो । जबकि अन्य जीव के गुणों की प्रशंसा की, तो पार लगते देर नहीं । जब-जब तुम्हारे मन में गुणानुवाद करने की इच्छा जगे, तब-तब दूसरों के गुणों की प्रशंसा करनी चाहिये और स्व-प्रशंसा की बुरी लत से कोसों दूर रहना चाहिये । हालाँकि स्व-प्रशंसा की बुराई मनुष्य में आज से नहीं, बल्कि अनादिकाल से चली आ रही है और जीव मात्र उसका भोग बनता रहा है। जो इससे मुक्त हो गया, नि:संदेह वह महान् बन गया । स्वप्रशंसा करने से ★ गुणवृद्धि का कार्य बीच में ही स्थगित हो जाता है। * स्व-दोषों के प्रति उपेक्षाभाव पैदा होता है।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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