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________________ २४७ अनात्मशंसा बजाते नहीं थकते ? अरे मेरे भाई ! उसी स्व-प्रशंसा का नल तुमने पुरजोश में खोल दिया है और पानी ‘कल्याण-वृक्ष' की जड़ों तक पहुँच गया है । लो, ये मूल दिखने लगे और वृक्ष धराशायी होने की तैयारी में है। अगर एक बार 'कल्याण वृक्ष' ढह गया कि फिर तुम्हारे नसीब का सितारा डूब गया समझो । पीछे दुःख भोगने के सिवाय कुछ नहीं बचेगा । सब मिट्टी में मिल जाएगा और तब स्व-प्रशंसा करने की घृष्टता ही नामशेष हो जाएगी । अलबत्ता, स्वप्रशंसा कर तुम्हें कुछ न कुछ खुशी तो होती ही होगी और सुख का आस्वाद भी मिलता होगा। लेकिन स्व-प्रशंसा से प्राप्त आनन्द क्षणभंगुर होता है। साथ ही उसका अंजाम बुरा ही होता है। क्या तुम ऐसे दुःखदायी सुख और आनन्द का त्याग नहीं कर सकते ? यदि कर लोगे, तो नि:संदेह 'कल्याणवृक्ष' स्थिर, मजबूत और दीर्घजीवी साबित होगा। फलतः उसकी डाल पर सुख के मीठे फल लगेंगे और उन फलों का आस्वाद तुम्हें अजरामर बना देगा । बेशक, तब तक तुम्हें धैर्य रखना होगा । दूसरों को स्व-प्रशंसा का आनन्द लूटते देख भूलकर भी तुम उनका अनुसरण न करना । भले ही दूसरे स्व-प्रशंसा के आनन्द में आकण्ठ डूब जाएँ, लेकिन तुम्हारे मन में तो वह आनन्द अकल्प्य और अभोग्य ही है। हम अपनी प्रशंसा खुद करें, तो अच्छा नहीं लगता । आराधक आत्मा के लिए यह सर्वथा अनुचित और अयोग्य है कि वह नित्यप्रति अपना मूल्यांकन खुद ही करे, अपने महत्त्व का रटन / जाप खुद ही करे और खुद ही लोगों को अपने गुण बताये । आराधक को चाहिए कि वह 'स्व-विज्ञापन' को घोर पाप समझे । मोक्ष-मार्ग का अनुगामी अपने दोष और दूसरों के गुण देखता है । जब वह अपने गुणों से ही अनभिज्ञ होता है, तब उसकी प्रशंसा (स्तुति) करने का प्रसंग ही कहाँ आता है ? स्व-प्रशंसा से कल्याण-वृक्ष की जड़ें उखड़ जाती हैं । उसका तात्पर्य यह है कि स्वप्रशंसा करने से पुण्यबल क्षीण हो जाता है और पुण्य क्षीण होते ही सुख खत्म हो जाता है। यह निर्विवाद सत्य है कि स्वप्रशंसा सुखों का नाश
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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