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ज्ञानसार
तरह पूर्ण समझता है और उसी भाँति सत्-चित्-आनन्द से परिपूर्ण आत्मा निखिला विश्व के जीवात्माओं में सत्-चित्-आनन्द-युक्त पूर्णता का दर्शन करता
यह शाश्वत सत्य, पूर्ण सुख की परिशोध-अन्वेषण करने हेतु कार्यरत आत्मा को दो महत्त्वपूर्ण बातों के निर्देश देता है :
१. समग्र चेतन-सृष्टि में सत्-चित्-आनन्द की परिपूर्णता का अनुभव करने के लिये दृष्टा पुरुष के लिए सत्-चित्-आनन्द युक्त पूर्णता की प्राप्ति आवश्यक है।
२. यदि समग्र चेतन-सृष्टि में से राग-द्वेषादि कषायों को जडमूल से उखाड फेंकना हो तो उसमें पूर्णता का अनुभव करने हेतु पुरुषार्थ (प्रयत्न) करना शुरु कर देना चाहिये ।
___जब तक जीवात्मा अपूर्ण है, परिपूर्ण नहीं है, तब तक वह निखिल विश्व की चेतन-सृष्टि में पूर्णता के दर्शन करने में सर्वथा असमर्थ है । लेकिन इसके लिये वह प्रयत्न अवश्य कर सकता है । मतलब यह कि वह अपने प्रयत्न बल से पूर्णता का अल्पांश में ही क्यों न हो, दर्शन अवश्य कर सकता है। पूर्णता के अंश के दर्शन का ही अर्थ है-गुणदर्शन । हर प्राणी में थोडे-बहुत प्रमाण में ही भले क्यों न हों, लेकिन गुण अवश्य होते हैं । जैसे-जैसे हमारी गुण-दृष्टि अन्तर्मुख होती जाएगी वैसे-वैसे हमें उसमें गुणों के दर्शन होते जायेंगे। जहाँ गुण-दृष्टि नहीं, वहाँ गुण-दर्शन नहीं । क्योंकि यह कहावत है कि "जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि" । स्वर्ग के ऐश्वर्य में आकण्ठ डूबा देवेन्द्र जिस तरह समस्त सृष्टि को ही सुखमय, ऐश्वर्यमय मानता है, उसी तरह गुणदृष्टि युक्त महापुरुष (आत्मा) सकल विश्व को गुणमय ही समझता है।
प्राणी में रही गुण-दृष्टि का जिस गति से विकास होता जाता है, उसी प्रमाण में उसमें रही राग-द्वेषादि दृष्टि का लोप होता रहता है । फलतः जीवन में रही अशान्ति, असुख, क्लेश, संतापादि नष्ट होते जाते हैं और उसके स्थान पर परम शान्ति, मनःस्वस्थता, स्थिरता और परमानन्द का आविर्भाव होता है।