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________________ १. पूर्णता जीव अपूर्ण है, शिव पूर्ण है । अतः अपूर्णता के घोर अन्धकार से पूर्णता के उज्ज्वल प्रकाश की ओर जाने का उपक्रम करें। क्योंकि समग्र धर्मपुरुषार्थ का ध्येय पूर्णता की प्राप्ति है । यही अंतिम ध्येय है, आखिरी मंजिल है । I फलस्वरुप, आत्मा की ऐसी परिपूर्णता प्राप्त कर लें कि कभी अपूर्ण होने का अवसर ही न आये । अपूर्णता का प्रादुर्भाव होने की सम्भावना ही न रहे ! युग-युगांतर से मोह और अज्ञान की गहरी खाई में दबी चेतना को, पूर्णता की प्रकाश-किरण आकर्षित करती रहती है । अपूर्ण: पूर्णतामेति - अपूर्ण पूर्णता पाये ! ग्रन्थकार महात्मा ने कैसी गहनगंभीर फिर भी मृदु बात का सूत्रपात किया है ! एक ही पंक्ति में, गागर में सागर भर दिया है। आत्मा की पूर्णता प्राप्त करने हेतु कर्मजन्य पदार्थों से रिक्त हो जाएँ ! ऐन्द्र श्रीसुखमग्नेन, लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेन, पूर्णं जगदवेक्ष्यते ॥१॥ अर्थ : स्वर्गीय सुख एवं ऐश्वर्य में निमग्न देवेन्द्र जिस तरह पूरे विश्व को सुखी श्रौर ऐश्वर्यशाली देखता है, ठीक उसी तरह सत्-चित्-आनन्द से परिपूर्ण योगी पुरुष विश्व को ज्ञान - दर्शन - चारित्र से युक्त, परिपूर्ण देखता है । विवेचन : जिस तरह सुखी प्राणी अपनी ही तरह अन्य प्राणियों को भी सुखी मानता है, ठीक उसी तरह जो पूर्णात्मा है, वह अन्यों को स्वयं की
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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