SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८. अनात्मशंसा आज जब स्वप्रशंसा के ढोल सर्वत्र बज रहे हैं और पर-निंदा करना हर एक के लिए एक शौक/फैशन बन गयी है, ऐसे में प्रस्तुत अध्याय तुम्हें एक अभिनव दृष्टि, नया दृष्टिकोण प्रदान करेगा। स्व के प्रति और अन्य के प्रति देखने की एक अनोखी कला सिखाएगा । यदि स्वप्रशंसा में आकण्ठ अहर्निश डूबे मनुष्य को पूज्यपाद उपाध्यायी की यह दृष्टि पसन्द आ जाए, उसे आत्मसात् करने की बुद्धि पैदा हो जाए, तो निःसन्देह उसमें मानवता की मीठी महक फैल जायेगी। गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि, कृतमात्मप्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत, कृतमात्मप्रशंसया ॥१८॥१॥ अर्थ : यदि तुम स्व-गुणों से परिपूर्ण नहीं हो, तब आत्म-प्रशंसा का क्या मतलब ? ठीक वैसे ही, यदि तुम स्व-गुणों से परिपूर्ण हो, तो फिर आत्मप्रशंसा की जरुरत ही नहीं है। . विवेचन : प्रशंसा ! स्व-प्रशंसा ! मनुष्य मात्र में यह वृत्ति जन्मतः होती है । उसे अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है । जी-भरकर स्व-प्रशंसा करना भी अच्छा लगता है। लेकिन यही वृत्ति अध्यात्ममार्ग में बाधक होती है । मोक्षमार्ग की आराधना में 'स्व-प्रशंसा' सबसे बड़ा अवरोध है । अतः वह त्याज्य निःसंदेह तुम्हारे अन्दर अनंत गुणों से युक्त आत्मा वास कर रही है। तुम ज्ञानी हो, तुम दानवीर हो, तुम तपस्वी हो, तुम परोपकारी हो, तुम ब्रह्मचारी
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy