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अनात्मशंसा
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हो, फिर भी तुम्हें अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए और ना ही सुननी चाहिये। क्योंकि स्व-प्रशंसा से उत्पन्न आनन्द तुम्हें उन्मत्त और मदहोश बना देगा। परिणाम स्वरुप अध्यात्म-मार्ग से तुम भ्रष्ट हो जाओगे । तुम्हारा अध:पात होते विलम्ब नहीं होगा। यदि तुम अपने-आप में गुणी हो, तब भला तुम्हें 'आत्म-प्रशंसा' की गरज ही क्या है ? आत्मप्रशंसा के कारण तुम्हारे गुणों में वृद्धि होनेवाली नहीं, बल्कि उनके नामशेष हो जाने का डर है ।
'मेरे सत्कार्यों से लोग परिचित हों, मेरे में रहे गुणों की जानकारी दूसरों को हो..., लोग मुझे सच्चरित्र, सज्जन समझें..." आदि इच्छा, अभिलाषा के कारण ही मनुष्य आत्म-प्रशंसा करने के लिए प्रेरित होता है। इसमें उसे अपनी भूल नहीं लगती, ना ही वह किसी प्रकार का पाप समझता है। भले ही वह न समझे ! सम्भव है साधना, उपासना और आराधना-मार्ग का जो पथिक न हो, वह उसे पाप अथवा भूल न भी समझे ! लेकिन जिसे मोक्ष-मार्ग की साधना से आनन्दामृत की प्राप्ति होती है, आत्म-स्वरुप की उपासना मात्र से आनन्द की डकारें आती हैं, उसे 'स्व-प्रशंसा, आत्म-प्रशंसा' की मिथ्यावृत्ति अपनाने का कभी विचार तक नहीं आता । 'स्व-प्रशंसा' 'स्व-प्रशंसा' उसके लिए पाप ही नहीं बल्कि महापाप है और उससे प्राप्त आनन्द कृत्रिम और क्षणिक होता है ।
लेकिन धरती पर ऐसे कई लोग हैं, जिनमें इन गुणों का अभाव होता है; सत्कार्य करने की शक्ति नहीं होती; वे भी अपनी प्रशंसा करते नहीं अघाते। अरे, तुम्हें भला किस बात की प्रशंसा करनी है ? गांठ में कुछ नहीं और चाहिए सब कुछ ! गुणों का पता नहीं, फिर भी प्रशंसा चाहिए ? जो समय तुम आत्मप्रशंसा में बरबाद करते हो, यदि उतना ही समय गुण-संचय करने में लगाओ तो ? परन्तु यह सम्भव नहीं । क्योंकि गुणप्राप्ति की साधना कठिन और दुष्कर है, जबकि बिना गुणों के ही आदर सत्कार और प्रशंसा पाने की साधना बावरे मन को, मूढ़ जीव को सरल और सुगम लगती है !
यह न भूलो कि स्वप्रशंसा के साथ परनिन्दा का नाता चोली-दामन जैसा है। इसीलिये ऐसे कई लोग परनिंदा के माध्यम से स्व-प्रशंसा करना पसंद करते हैं, जिनमें आत्मगुण का पूर्णतया अभाव है, साथ ही जो स्वप्रशंसा के भूखे होते हैं । 'अन्य की तुच्छता साबित करने से खुद की उच्चता अपने आप सिद्ध हो