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निर्भयता
करना चाहिए ।
वासनावृत्ति को जिसने प्रतिबंधित कर दिया है, कषायों के उत्पात को जिसने नियंत्रित कर दिया है, हास्य-रति- अरति एवं शोक उद्वेग की ज्वालाओं को शान्त - प्रशान्त कर दिया है, साथ ही अपनी दृष्टि को सम्यक् बना दिया है, ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या का अतुल बल जिसने प्राप्त कर लिया है, लोक- व्यापार और आचार-विचारों को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दी है, ऐसे महामुनि को भला भय कैसा ? उसे किसी बात का डर नहीं होता। बल्कि वह तो निर्भय और नित्यानन्दी होता है !
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अक्षय ज्ञान - साम्राज्य में भय का नामोनिशान तक नहीं होता है ! ज्ञानसाम्राज्य के उस पार भय, शोक और उद्वेग होता है ! मुनिराज को सिर्फ एक बात की सावधानी / दक्षता रखनी चाहिए कि भूलकर भी कभी वह ज्ञान - साम्राज्य की सीमाओं के उस पार न चला जाए ! वह अपने राज्य में सदा निर्भय होता है। साथ ही उक्त साम्राज्य के नागरिकों का वह एकमेव अभयदाता है । वास्तव में देखा जाए तो अभय का आनन्द ही सही आनन्द है । भयभीत अवस्था में आनन्द नहीं होता, बल्कि उसका अस्पष्ट आभास मात्र होता है, कृत्रिम आनन्द होता है।
अखंड ज्ञान- साम्राज्य में ही अभय का आनन्द प्राप्त होता है ।