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ज्ञानसार
अभय चारित्र !
अभय का भाव प्रस्फुरित करनेवाला चारित्र जिसकि अक्षय-निधि है और जो उसके पास है, उसे भला, भय कैसा ? किस बात का भय ? कारण वह तो अखण्ड, अक्षय ज्ञान रूपी-राज्य का एकमेव अधिपति है, महाराजाधिराज है !
अखण्ड ज्ञान का साम्राज्य ! और उसका सम्राट है मुनि स्वयं !
ऐसे साम्राज्य का अलबेला सम्राट क्या भयाकान्त हो ? आकुल-व्याकुल हो ? अरे उसे भयप्रेरित व्यथाएँ शत-प्रतिशत असम्भव होती हैं । चारित्र की उत्कृष्ट भावना से उसकी मति भावित होती है ।
समस्त संसार के बाह्य भौतिक पदार्थ एवं कर्मजन्य भावों की ओर मुनि इस दृष्टि से देखता है
'क्षणविपरिणामधर्मा मानामृद्धिसमुदयाः सर्वे ।। • सर्वे च शोकजनकाः संयोगा विप्रयोगान्ताः ॥ -प्रशमरति
मनुष्य की ऋद्धि और सम्पत्ति का स्वभाव क्षणार्ध में ही परिवर्तित होने का रहा है और समस्त ऋद्धि-सिद्धि के समुदाय शौकप्रद हैं !
संयोग वियोग में परिणमित होते. हैं !
जिसे इस शाश्वत् सत्य का पूर्ण ज्ञान है कि 'ऋद्धि सिद्धि और धनसंपदा क्षणिक है, 'वह कभी शोकग्रस्त अथवा भयातुर नहीं होता !
___ चारित्र में स्थिरता और अभय प्रदान करनेवाली दूसरी भी भावनाओं का मुनि बार-बार चिंतन करता रहता है :
भोगसुखैः किमनित्यैर्भयबहुले: कांक्षितैः परायत्तैः । नित्यमभयमात्मस्थं प्रशमसुखं तत्र यतितव्यम् ॥ -प्रशमरति
जो अनित्य भयमुक्त और पराधीन हैं ऐसे भोग सुखों से क्या मतलब? अपितु मुनि को नित्य अभय और आत्मस्थ प्रशमसुख के लिए ही सदैव पुरुषार्थ