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________________ २४२ ज्ञानसार अभय चारित्र ! अभय का भाव प्रस्फुरित करनेवाला चारित्र जिसकि अक्षय-निधि है और जो उसके पास है, उसे भला, भय कैसा ? किस बात का भय ? कारण वह तो अखण्ड, अक्षय ज्ञान रूपी-राज्य का एकमेव अधिपति है, महाराजाधिराज है ! अखण्ड ज्ञान का साम्राज्य ! और उसका सम्राट है मुनि स्वयं ! ऐसे साम्राज्य का अलबेला सम्राट क्या भयाकान्त हो ? आकुल-व्याकुल हो ? अरे उसे भयप्रेरित व्यथाएँ शत-प्रतिशत असम्भव होती हैं । चारित्र की उत्कृष्ट भावना से उसकी मति भावित होती है । समस्त संसार के बाह्य भौतिक पदार्थ एवं कर्मजन्य भावों की ओर मुनि इस दृष्टि से देखता है 'क्षणविपरिणामधर्मा मानामृद्धिसमुदयाः सर्वे ।। • सर्वे च शोकजनकाः संयोगा विप्रयोगान्ताः ॥ -प्रशमरति मनुष्य की ऋद्धि और सम्पत्ति का स्वभाव क्षणार्ध में ही परिवर्तित होने का रहा है और समस्त ऋद्धि-सिद्धि के समुदाय शौकप्रद हैं ! संयोग वियोग में परिणमित होते. हैं ! जिसे इस शाश्वत् सत्य का पूर्ण ज्ञान है कि 'ऋद्धि सिद्धि और धनसंपदा क्षणिक है, 'वह कभी शोकग्रस्त अथवा भयातुर नहीं होता ! ___ चारित्र में स्थिरता और अभय प्रदान करनेवाली दूसरी भी भावनाओं का मुनि बार-बार चिंतन करता रहता है : भोगसुखैः किमनित्यैर्भयबहुले: कांक्षितैः परायत्तैः । नित्यमभयमात्मस्थं प्रशमसुखं तत्र यतितव्यम् ॥ -प्रशमरति जो अनित्य भयमुक्त और पराधीन हैं ऐसे भोग सुखों से क्या मतलब? अपितु मुनि को नित्य अभय और आत्मस्थ प्रशमसुख के लिए ही सदैव पुरुषार्थ
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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