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________________ निर्भयता २४१ करेंगे?" क्योंकि वह अपने आप में परमज्ञानी थे, पर्वत-से अजेय-अडिग थे। __ हम ज्ञानी बनेंगे तभी भय पर विजय पा सकेंगे । उसे अपने नियंत्रण में रख सकेंगे । सचमुच, जिसने भय को भयभीत कर दिया, उस पर विजयश्री प्राप्त कर ली, उसका आनन्द अनिर्वचनीय होता है। उसका वर्णन करने में लेखनी असमर्थ है। सिर्फ उसका अनुभव किया जा सकता है ! शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता ! भयाक्रांत मनुष्य उक्त आनन्द और असीम प्रसन्नता की कल्पना तक नहीं कर सकता ! . ज्ञानी बनने का अर्थ सिर्फ जानकार बनना नहीं है, सौ–पचास बड़ेबड़े ग्रन्थ पढ लेना मात्र नहीं है । ज्ञानी का मतलब है ज्ञान-समृद्ध होना, निरंतर आसपास में घटित घटनाओं का ज्ञानदृष्टि से सांगोपांग अभ्यास करना, चिंतनमनन करना है । ज्ञानदृष्टि से हर प्रसंग का अवलोकन करना । जिसके देखने मात्र से ही अज्ञानी थर-थर काँपता हो वहाँ ज्ञानी निश्चल और निष्प्रकम्प रहता है। जिन प्रसंगों के कारण अज्ञानी विलाप करता है, ठंडी आहे भरता है और निश्वास छोड़ अपने कर्मों को कोसता है, वहाँ ज्ञानी पुरुष अतल अथाह जलराशि सा धीर-गम्भीर और मध्यस्थ बना रहता है ! जिस घटना को निहार अज्ञानी भाग खड़ा होता है, वहाँ ज्ञानी उसका धैर्य के साथ सामना करता है ! ऐसे ज्ञान-समृद्ध बनने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए । फल स्वरूप, भय के झंझावात में भी तन-मन की स्वस्थता-निश्चलता को बनाये रख सकेंगे, शिव नगरी की ओर प्रयाण करने हेतु समर्थ बनेंगे । तात्पर्य यह है कि निर्भयता का मार्ग ज्ञानी-पुरुष ही प्राप्त करते हैं । चित्ते परिणतं यस्य चारित्रमकुतोभयम् । अखण्डज्ञानराज्यस्य तस्य साधो कुतो भयम् ॥१७॥८॥ अर्थ : जिसके चित्त में जिसको किसी से कोई भय नहीं है, ऐसा चारित्र परिणत है, उस अखण्ड ज्ञानरूपी राज्य के अधिपति साधु को भला, भय कैसा? विवेचन : चारित्र !
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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