________________
२३८
ज्ञानसार
कवच धारण किया है, उसको कर्म-संग्राम की क्रीडा में भय कैसा और पराजय भी कैसे सम्भव है ?
विवेचन : कर्मों के खिलाफ संग्राम ! संग्राम खेलनेवाले हैं मुनिराज !
मुनिराज इस संग्राम में पूर्णतया निर्भय और अजेय हैं ! भय का कहीं नामोनिशान नहीं और पराजय की गन्ध तक नहीं !
कर्म के सनसनाते मोहास्त्रों की बौछार होने पर भी मुनिवर के मुखारविंद पर भय की रेखा तक नहीं, बल्कि मंद-मंद स्मित बिखरा है । मन में अदम्य मस्ती है और युद्ध का अपूर्व उल्लास है ।।
जिन मोहास्त्रों का सामना करते हुए तिस्मारखों की भी धिग्धी बन्ध जाएँ, बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के चक्के छूट जाएँ और बड़े बड़े पहलवानों के दिल दहल जाएँ, धरती को कम्पायमान करनेवाले रथी-महारथी सुध-बुध खो बैठे, ऐसे तीक्ष्ण मोहास्त्रों की मार के बावजूद मुनिवर अटल-अचल और धीर-गंभीर खडे रहते हैं ! आश्चर्य की बात ही है ! यदि उनकी इस अडिग वृत्ति और निश्चलता का रहस्य जानना हो तो, तनिक निकट जाइए ! उन्हें एक नजर देखिए ! तब तुम्हारी शंका कुशंकाओं का निराकरण होते विलम्ब नहीं लगेगा !
मुनिराज का कवच तो देखो ! वह लोहे का नहीं, कछुए की खाल का नहीं और ना ही किसी रासायनिक अथवा 'प्लेस्टिक' का है। वह कवच है ज्ञान का ! ज्ञान-कवच !
हाँ, उन्होंने ज्ञान कवच धारण कर रखा है। कर्म लाख प्रयत्न करें, अपने पास रहे मोहास्त्रों का भण्डार खाली कर दें, लेकिन ज्ञान कवच के आगे सब निष्फल है ! वैशाली की नगरवधु रूपसुंदरी कोशा के यहाँ महायोगी स्थुलभद्रजी इसी ज्ञान-कवच को धारण कर बैठे थे ! दीर्घावधि तक मोहास्त्रों की बौछार... शस्-संधान होता रहा, लेकिन कोई असर नहीं हुआ । मुनिराज निर्भय थे । परिणामस्वरुप उन्हें पराजय का सामना न करना पडा । बल्कि विजयश्री की भेरी बजाते वे बहार निकल आये ।