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________________ निर्भयता २३७ है । फलत: कर्म-बन्धनों के मजबूत जाल में खुद होकर फँस जाता है । जबकि ज्ञान-दृष्टि में राग और द्वेष का सर्वथा अभाव होता है । ज्ञानदृष्टि यानी मध्यस्थ दृष्टि ! ज्ञानदृष्टि यानी यथार्थ दृष्टि ! अनादिकालीन अज्ञानपूर्ण कल्पना, मलिन पद्धति और मिथ्या वासना का अवलम्बन कर सृष्टि को निरखने और परखने में भय रहता ही है। फलतः निर्भयता नहीं मिलती है। एक उदाहरण से समझें इस बात को । शरीर रोगग्रस्त हो गया, अज्ञानी मनुष्य इससे भयभीत हो उठेगा । मलिन विचारवाला रोग को मिटाने के लिए गलत उपायों का अवलम्बन करेगा । मिथ्यावासनावाला शरीर में रहे रोग की चिंता में अपनी शान्ति खो बैठेगा और तब भय-सर्प उसके आनन्द-वृक्षों से लिपट जाएँगे । मन-वन में भय-सों की भरमार हो जाएगी ! .... लेकिन ज्ञानदृष्टि-मयूरी की सुरीली कूक सुनायी पडते ही भय–सों को छठी का दूध याद आ जाएगा और जहाँ राह देखेंगे वहाँ भागते देर नहीं लगेगी ! रोगग्रस्त शरीर की नश्वरता, उसमें रही रोग-प्रचुरता और ज्ञानदृष्टि ही कराती है । साथ ही, आत्मा और शरीर का भेद भी समझाती है। जबकि आत्मा की शाश्वतता, उसकी सम्पूर्ण निरोगिता और शुद्ध स्वरूप की ओर हमारा ध्यान भी केन्द्रित करती है । 'रोग का कारण पाप-कर्म हैं,' का निर्दश कर, पाप-कर्मों को नष्ट करने हेतु पुरुषार्थ कराती है । सनत्कुमार चक्रवर्ती का शरीर एक साथ सोलह रोगों (मतान्तर से सात महारोग) का शिकार बन गया ! लेकिन उनका मन-उपवन नित्यप्रति ज्ञान-दृष्टि रुपी मयूरी की मीठी कूक से गुंजारित था ! अत: उसने समस्त रोगों के मूल कर्म-बन्धनों को काटने का भगीरथ पुरुषार्थ किया । सात सौ वर्ष तक कर्मों के साथ भिडते रहे, उनका सफल सामना करते रहे । उसका कारण था ज्ञानदृष्टि से उन्हें मिली निर्भयता और अभय-दृष्टि ! वे अपने उद्देश्य में सफल हुए । हमारे प्रयत्न ऐसे हों कि सदा-सर्वदा हमारे मन-वन में ज्ञान-दृष्टि रुपी मयूरी की सुरीली ध्वनि गूंजती रहे । . कृतमोहास्त्रवैफल्यं ज्ञानवर्म बिभर्ति यः ! . क्व भीस्तस्य क्व वा भंग कर्मसंगरकेलिषु ॥१७॥६॥ अर्थ : जिस ने मोहरुपी शस्त्र को निष्फल बना दिया है, ऐसा ज्ञानरूप
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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