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ज्ञानसार
मयूरी ज्ञानदृष्टिश्चेत् प्रसर्पति मनोवने । वेष्टनं भयसर्पाणां न तदानन्दचन्दने ॥१७॥५॥
अर्थ : यदि ज्ञानदृष्टि रूपी मयूरी मनरूपी उपवन में स्वच्छंद रूप से केलि क्रीडा करती है तो आनन्द रुपी बावना-चंदन के वृक्ष पर भयरुपी साँप लिपटे नहीं रहते । विवेचन : 'मन' बावना-चंदन का उपवन है।
'आनन्द' बावना-चंदन का वृक्ष है। 'भय' भयंकर सर्प है।
'ज्ञानदृष्टि' उपवन में किल्लोल करती, मीठी कूक से सब के चित्त-प्रदेश को हर्षोत्फुल्ल करती मयूरी है !
मुनिवर का मन यानी बावना चंदन का अलबेला उपवन ! बहाँ सर्वत्र सौरभ ही सौरभ ! जहाँ दृष्टि पडे वहाँ सर्वत्र चंदन के वृक्ष ! एक नहीं अनेक !
और वह भी सामान्य चंदन के नहीं, बल्कि बावना चंदन के वृक्ष ! जहाँ नजर पडे वहाँ आनन्द ही आनन्द !
___ मुनिवर का मन यानी आनन्द-वन ! उस आनन्द वन में मयूरी की मीठी कूक होती है । उस मयूरी का नाम है ज्ञानदृष्टि ! फिर भला, वे भय-सर्प चंदनवृक्ष से कैसे लिपट सकते हैं ?
मुनि-जीवन के लिए ज्ञान-दृष्टि महत्त्वपूर्ण है। ज्ञानदृष्टि के बल पर ही मुनि निर्भय रह सकता है। साथ ही उसके सान्निध्य में आत्मानन्द की अनुभूति हो सकती है।
ज्ञानदृष्टि का मतलब है ज्ञान की दृष्टि... सम्यग्ज्ञान की दृष्टि । जगत् के पदार्थ और उसके प्रसंगों को ज्ञान-परिपूर्ण दृष्टि से देखना है, परखना है और अवलोकन करना है। इस तरह की दिव्य-दृष्टि जीव को अनादि काल से आज तक नहीं मिली है ! अत: वह जो कुछ देखता है, परखता है, समझता है और जिसके सम्बन्ध में चिंतन-मनन करता है, वह सब रागदृष्टि से या द्वेषदृष्टि से करता