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________________ २३४ ज्ञानसार जैसा, गुप्त रखने जैसा कुछ भी नहीं है। जड़ पदार्थों का ना ही वहाँ लेन-देन करना है, ना ही भौतिक पदार्थों का संग्रह करना है । हे मुनिवर ! आपकी आत्मा के प्रदेश-प्रदेश पर निर्भयता की मस्ती उल्लसित है ! उसकी तुलना में स्वर्गीय मस्ती भी तुच्छ है I एकं ब्रह्मास्त्रमादाय निघ्नन् मोहचमूं मुनिः ! बिभेति नैव संग्रामशीर्षस्थ इव नागराट् ॥१७॥४॥ अर्थ : ब्रह्मज्ञान रूपी एक शस्त्र धारण कर, मोहरूपी सेना का संहार करता मुनि, संग्राम के अग्रभाग में ऐरावत हाथी की भांति भयभीत नहीं होता है। विवेचन : भय कैसा और किस बात का ? मुनि और भय ? अनहोनी बात है ! मुनि के पास तो 'ब्रह्मज्ञान' का शस्त्र है ! इससे वह सदा-सर्वदा निर्भय होता है । मुनि यानी घनघोर युद्ध में अजेय शक्तिशाली मदोन्मत्त हाथी ! उसे भला पराजय का भय कैसा ? उसे शत्रु का कोइ हुंकार या ललकार भयाक्रान्त नहीं कर सकता । मोह-रिपु से सतत संघर्षरत रहते हुए भी मुनि निर्भय और निश्चल होता है । ब्रह्मास्त्र के कारण वह नित्यप्रति आश्वस्त और निश्चित है ! मोह-सेना की ललकार और उत्साह को क्षणार्ध में ही मटियामेट करने की मुनिराज की योजना 'ब्रह्मास्त्र'की सहायता से सांगोपांग सफल होती है । मदोन्मत्त मोह - सेना, मुनिराज के समक्ष तृणवत् प्रतीत होती है। फिर भी उसकी हलचल, प्रयत्न और आवेग कुछ कम नहीं होते । महाव्रत - पालन में सांगोपांग सफलता, सार्वत्रिक समता, विश्वमैत्री की भव्य भावना और इन सबकी सिरमौर - - सदृश परमात्म-भक्ति ! साथ ही आज्ञापालन, मुनिराज की शक्ति में निरंतर विद्युत संचार करते रहते हैं । उनके मुखमण्डल पर एक अद्भुत खुमारी दृष्टिगोचर होती है । वह खुमारी होती है निर्भयता की, शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करने की असीम श्रद्धा की ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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