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निर्भयता
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परिपूर्ण ।
मारे क्रोध से राजा की आँखें लाल-सुर्ख हो रही थीं, नथूने फूल रहे थे, हाथ काँप रहे थे और मुखमण्डल कोप से खिंचा हुआ था । पाँव पछाडता राजा झांझरिया मुनिवर की ओर लपक पडा था, मुनिवर की हत्या करने के लिए! लेकिन क्षमाशील झंझरिया मुनिवर ने इस घटना को किस रूप में लिया और किस रूप में उसका मूल्यांकन किया ? नहीं जानते, तो जान लो । उन्होंने इस घटना को सहज में ही लिया और ज्ञानदृष्टि से उसका मूल्यांकन किया। उनके मन में राजा के प्रति न रोष था, ना कोप ! उन्हें अपने तन-बदन पर मोह ही नहीं था ! उन्होंने इस घटना पर विचार करते हुए मन ही मन सोचा : "राजा भला, मेरा क्या लूटनेवाला है ? उसकी तलवार का और रोष का डर किस लिये ? मैंने कुछ छिपा नहीं रखा है। जो है सबके सामने है और फिर शरीर का मोह कैसा? वह तो विनाशी है । कभी न कभी नष्ट होगा ही ! तलवार का प्रहार जब शरीर पर होगा तब मैं परमात्मध्यान में मग्न हो जाऊँगा, समता-समाधिस्थ बन जाऊँगा ! तब मेरे लूटे जाने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता!" फलत: मुनिवर निर्भयता की परम ज्योति के सहारे परम ज्योतिर्मय बन गये ।
जब तक तुम कुछ छिपाना चाहते हो, सौदे बाजी करने में खोये रहते हो, किसी बात को गोपनीय रखना चाहते हो, तब तक तुम्हारे मन में सदैव भय की भावना, भयाकान्तता बनी रहेगी और यही भावना तुम्हारी मोक्षाराधना के मार्ग में रोड़ा बनकर नानाविध मानसिक बाधाएँ अवरोध पैदा करती हैं ! अतः इसे मिटाने के लिए ज्ञानदृष्टि का अमृत-सिंचन करना चाहिए। तभी मोक्ष-पथ की आराधना सुगम और सुन्दर बन सकती है ।
विश्व में कुछ छिपाने जैसा नहीं है ! विश्व में लेन-देन करने जैसा कुछ नहीं है ! विश्व में संग्रह करने जैसा कुछ नहीं है !
इन तीन बातों पर गहराई से चिंतन-मनन कर गले उतारना है, हृदयस्थ करना है। परिणामस्वरूप भय का कहीं नामोनिशान नहीं रहेगा । सर्वत्र अभय का मधुरनाद सुनायी देगा। मुनिमार्ग निर्भयता का राजपथ है। क्योंकि वहाँ छिपाने