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________________ निर्भयता २३१ . भय, सचमुच क्या आग लगती है ? यदि तुम भय को ज्वालामुखी समझोगे तभी 'संसार-सुख राख है', यह बात समझ पाओगे । अतः सर्वप्रथम भय को अग्नि समझना, मानना और अनुभव करना होगा। भय का क्षणिक स्पर्श भी हृदय को झुलसा देता है । जानते हो न, झुलसने से जो असह्य वेदना होती है, उसको सहना अति कठिन होता है। भय का स्पर्श कब होता है, भयाग्नि कब धधक उठती है, इससे क्या तुम भलि-भांति परिचित हो ? जहाँ संसार-सुख की अभिलाषा का उदय हुआ, उसका उपभोग करने की अधीरता पैदा हुई कि भयाग्नि सहसा धधक उठती है। परिणामतः उपभोग के पूर्व ही संसार-सुख जलकर राख हो जाता है और तब, जिस तरह छोटे बच्चे शरीर पर राख मलकर मगन हो नाचते हैं किल्लोल करते हैं, उसी तरह तुम भले ही संसार-सुख की भस्म बदन पर मलकर खुश हो जाओ! लेकिन मिलनेवाला कुछ भी नहीं ! मिलेगी तो सिर्फ राख ही मिलेगी ! संसार के हर सुख के ऊपर असंख्य भयों के भूत मंडरा रहे हैं । रोग का भय, लूटे जाने का भय, विनाश और विनिपात का भय, चोर का भय, मानअपमान का भय, समाज का भय, सरकार का भय ! यहाँ तक की भव-भ्रमण का भी भय । भय के सिवाय इस दुनिया में है ही क्या ? अतः सुज्ञ व्यक्ति को भूलकर भी कभी एसे सुख की अपेक्षा, कामना नहीं करनी चाहिए, कि जहाँ भयाग्नि का भाजन बनने की सम्भावना है । ____ विश्व में सुख के अनंत प्रकार हैं। लेकिन सिर्फ 'ज्ञानसुख' ऐसा एकमेव सुख है, जिसे भयाग्नि कभी स्पर्श नहीं कर सकती ! तब उसे जलाने का सवाल ही नहीं उठता है । ज्ञानसुख को भयाग्नि भस्मीभूत नहीं कर सकती ! भय के भूत उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते और ना ही भय की आँधी उसे अपने गिरफ्त में ले सकती है। ज्ञान की विश्व-मंगला वृष्टि से आत्मप्रदेश पर सतत प्रज्वलित विषयविषाद की भीषण अग्नि शान्त हो जाती है और सुख-आनन्द के अमर पुष्प प्रस्फुटित हो उठते हैं ! अपने मनोहर रूप-रंग से प्राणी मात्र का मन मोह लेते हैं ! उन पुष्पों की दिव्य सौरभ से मन में ब्रह्मोन्मत्तता, कण्ठ में अलख का कूजन
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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