SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३० ज्ञानसार काटने में वह अपने आत्म स्वभाव को पूर्णतया भूल जाता है। आत्मा की सरासर उपेक्षा करता रहता है। परिणाम यह होता है कि वह आत्म-स्वभाव और उसकी लीनता की घोर उपेक्षा कर बैठता है ! ऐसी अवस्था में भयाक्रांत नहीं होगा तो भला क्या होगा? इसीलिए ज्ञानी पुरुषों ने आदेश दिया है कि पर-पदार्थों की अपेक्षा वृत्ति को हमेशा के लिए तिलांजलि दे दो ! आत्म-स्वभाव के प्रति रहे उपेक्षाभाव को त्याग दो ! भयभ्रान्त अवस्था की विवशता, व्याकुलता और विषाद को नामशेष कर दो ! इतना करने से हमेशा के लिए तुम्हारे मन में घर कर बैठी पस्-पदार्थों की-अपेक्षावृत्ति खत्म हो जाएगी । परपदार्थों के अभाव में तुम दुःखी नहीं बनोगे, निराश नहीं होंगे ! फल यह होगा कि तुम्हारे रिक्त मन में आत्म-स्वभाव की मस्ती जाग पड़ेगी ! भय के परिताप से दग्ध मस्तिष्क शान्त हो जाएगा ! निर्भयता की खुमारी और विषयविराग की प्रभावी अभिव्यक्ति हो जाएगी ! भय की आँधी थम जाएगी और जीवन में शारदीय रात की शीतलता एवं धवल ज्योति रूप निर्भयता का अविरत छिड़काव होने लगेगा । भवसौख्येन किं भूरिभयज्वलनभस्मना । सदा भयोज्झितज्ञान-सुखमेव विशिष्यते ॥१७॥२॥ अर्थ : असंख्य भयरुपी अग्नि-ज्वालाओं से जलकर राख हो गया है, ऐसे सांसारिक सुख से भला क्या लाभ ? प्रायः भयमुक्त ज्ञानसुख ही श्रेष्ठ है। विवेचन : सांसारिक सुख ? भस्म से अधिक कुछ नहीं, राख है राख ! भय की प्रचंड अग्नि-ज्वालाओं से प्रगटी राख है ! ऐसे तुच्छ और हीन सांसारिक सुख से, राख जैसे संसार-सुख से भला, तुम्हें क्या लेना-देना ? । संसार का सुख यानी शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का सुख ! ये सब संसार-सुख के अनेकविध रूप हैं । इसके असंख्य प्रकार के रुपों को तुम्हारी अपनी चर्म-चक्षुओं से निहारते हुए राख कहीं नजर नहीं आएगी ! वल्कि राख को राख समझने-देखने के लिए सुखों का पृथक्करण करना होगा। तभी तुम उसे वास्तविक स्वरुप में देख पाओगे, समझ पाओगे ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy