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________________ निर्भयता २२९ क्या तुम्हारी यह आन्तरिक इच्छा है कि सदा के लिए तुम भयमुक्त हो जाओ? तुम्हारे निरभ्र जीवन-गगन में निर्भयता का सूर्य प्रकाशित हो और तुम उसी प्रकाश-पुंज के सहारे निर्विघ्नरूप से मोक्षमार्ग पर चल पडो ! ऐसी झंखना, आकांक्षा है क्या तुम्हारे मन में ? पूज्यपाद उपाध्यायजी महाराज ने भयमुक्त होने के लिए दो उपाय सुझाये हैं : पस्-पदार्थों की उपेक्षा स्व-भाव । अद्वैत की अपेक्षा ! भय-भ्रान्त अवस्था का निदान भी पूज्यश्री के इसी कथन से स्पष्ट होता है पर-पदार्थों की अपेक्षा ! स्वभाव-अद्वैत की उपेक्षा ! आइए, हम इस निदान को विस्तार से समझने का प्रयत्न करें ! "पर-पदार्थ यानि आत्मा से भिन्न... दूसरी वस्तु ! जगत में ऐसे परपदार्थ अनंत हैं ! अनादिकाल से जीव इन्हीं पर-पदार्थों के सहारे जीवित रहने का अभ्यस्त हो गया है। अरे, उसकी ऐसी दृढ मान्यता बन गई है कि, 'परपदार्थों की अपेक्षा से ही जीवित रह सकते हैं ! शरीर वैभव, सम्पत्ति, स्नेहीस्वजन, मित्र-परिवार, मान-सन्मान और इनसे सम्बन्धित पदार्थों की स्पृहा, ममत्व और रागादि से वह बार-बार भयाकान्त बन जाता है। .. "इनकी प्राप्ति कैसे होगी? और नहीं हुई तो ? मैं क्या करूँगा ? मेरा क्या होगा? मुझे कौन पूछेगा ? यह... नहीं सुधरेगा तो ? यदि बिगड गया तब क्या होगा... ?" आदि असंख्य विचार उनके मस्तिष्क में तूफान पैदा करते रहते पर-पदार्थों के अभाव में अथवा उनके बिगड़ जाने की कल्पना मात्र से जीव को दुःख के पहाड़ टूट पडने जैसा आभास होता है । वह भयाकुल हो काँप उठता है ! उसका मन निराशा की गर्त में फंस जाता है ! वह खिन्न हो उठता है ! मुख–मण्डल निस्तेज हो जाता है ! पर-पदार्थों के आस-पास चक्कर
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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