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________________ १७. निर्भयता जहाँ भय वहाँ अशान्ति चिरस्थायी है ! अत: निर्भय बनो । निर्भयता में असीम शान्ति है और अनिर्वचनीय आनन्द भी ! भयभीतता की धू-धू जलती अग्नि से बाहर निकलने के लिए तुम्हें प्रस्तुत प्रकरण अवश्य पढना चाहिए । तुम्हारा मुखमण्डल, निर्भयता की अद्भुत आभा से देदीप्यमान, परम तेजस्वी दृष्टिगोचर तो होगा ही, साथ ही जीवन से निराशा छू-मंतर हो जाएगी ! सुख के अनेक साधन उपलब्ध होने पर भी, यदि तुम्हारे मन में भय होगा तो तुम दुःखी ही रहोगे । सुख के साधन कोई काम के नहीं रहेंगे । निर्भयता ही सच्चे सुख की जननी है । यस्य नास्ति परापेक्षा स्वभावाद्वेतगामिनः । तस्य किं न भयभ्रान्ति-क्लान्ति, सन्तानतानवम् ? ॥१७॥१॥ अर्थ : जिसे दूसरे की अपेक्षा नहीं है और जो स्वभाव की एकता को प्राप्त करनेवाला है, उसे भय की भ्रान्ति से हुए खेद की परम्परा की अल्पता क्यों न होगी? विवेचन : क्या तुमने कभी सोचा है कि तुम्हारे जीवन-गगन में भय के बादल किस कारण घिर आये हैं ? क्या कभी विचार किया है कि भय का भ्रम किस तरह पैदा होता है ? अनेक प्रकार के भय से तुम दिन-रात... अशान्त और संतप्त हो, फिर भी कभी यह सोचने का कष्ट नहीं उठाते कि वह क्या है, जिसकी वजह से तुम भयाग्नि में धूं-धूं जल रहे हो ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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