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________________ मध्यस्थता २२७ लिए कदाग्रह का त्याग किये बिना कोई चारा नहीं । वास्तविकता यह है कि असद् आग्रह जीव को पतन की गहरी खाई में फेंक देता है । व्रतानि चीर्णानि तपोऽपि तप्तं कृता प्रयत्नेन च पिण्डविशुद्धिः । अमूत्फलं यसु म निहलवानां, असद्ग्रहस्यैव हि सोऽपराधः । "व्रत, तप, विशुद्ध, भिक्षावृत्ति... क्या नहीं था ? सब था ? परन्तु वह निह्नवों के लिये निष्फल गया । क्यों भला ? असद् आग्रह के अपराध के कारण!" अतः असद् आग्रह का परित्याग कर मध्यस्थ दृष्टिवाले बनना चाहिए। आमे घटे वारि भृतं यथा सद्, विनाशयेत्स्वं च घटं च सद्यः । असद्ग्रहग्रस्तमतेस्तथैव, श्रुतप्रदत्तादुभयोविनाशः ॥ "यदि मिट्टी के कच्चे घडे में पानी भर दिया जाए तो? घडा और पानी दोनों का नाश होता है ! ठीक उसी भाँति असद् आग्रही जीव को श्रुतज्ञान दिया जाए तो ? निःसंदेह ज्ञान और उसे ग्रहण करनेवाला-दोनों का विनाश होते देर नहीं लगेगी। असद् आग्रह का परित्याग कर, मध्यस्थ दृष्टिवाले बन, परम तत्त्व का अन्वेषण करना चाहिए । तभी परम हित होगा।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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