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________________ मध्यस्थता २२५ जिस तरह युक्ति के अनुसरण में मध्यस्थता रही है, ठीक उसी तरह सिद्धान्तों के दृष्टा महापुरुष की आप्तता का भी मध्यस्थ दृष्टि विचार करती है। जो वक्ता आप्तपुरुष-वीतराग है, उसका वचन । उपदेश हमेशा स्वीकार्य होता है, सर्वमान्य होता है। ठीक वैसे ही जो वक्ता वीतराग नहीं होता, उसका कथन और वचन प्राय: राग-द्वेषयुक्त होता है, अतः त्याज्य है। इस तरह मध्यस्थ दृष्टि की आलीशान इमारत आत्मा के त्याग और स्वीकार नाम के दो स्तम्भों पर टिकी हुई है। 'मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनर्बधकादिषु । चारिसंजीविनीचारन्यायादाशास्महे हितम् ॥१६॥८॥ अर्थ : अपुनर्बंधकादि समस्त में मध्यस्थ दृष्टि से संजीवनी का चारा चराने के दृष्टांत द्वारा कल्याण की कामना करते हैं। विवेचन : स्वस्तिमती नाम का नगर था । वहाँ दो ब्राह्मण-कन्याएँ वास करती थी। दोनों में प्रगाढ मित्रता और अनन्य स्नेहभाव था । कालान्तर से दोनों विवाहित होकर अलग-अलग स्थान पर चली गयीं । किसी समय दोनों का आगमन स्वस्तिमती नगर में स्वगृह में हुआ । प्रदीर्घ समय के पश्चात् भेंट होने पर दोनों आनन्द से पुलकित हो उठीं । लगी आपस में अपनी अपनी सुनाने । बतियाते हुए एक सहेली ने सहज ही कहा : "सचमुच मैं बहुत दुःखी हूँ, सखी, लाख प्रयत्न के बावजूद भी मेरा पति मेरी एक बात भी नहीं सुनता । हमेशा अपनी मनमानी करता है।' "सखी, तुम निश्चिंत रहो । मैं तुम्हें ऐसी जडी-बुट्टी दूंगी कि उसके सेवनमात्र से वह तेरा हो जाएगा ।' दूसरी ने कुछ सोच विचार कर कहा और उसे जडी-बुट्टी देकर वह चली गयी । ससुराल जाकर उसने वह जडी-बुट्टी पीसकर अपने पति को खिला दी। जडी-बुट्टी खाते ही उसका पति बैल रूप में परिवर्तित हो गया ! पति को बैल के रुप में देख, पत्नी को अत्यन्त दुःख हुआ। वह मन मार कर रह गयी । अब वह हमेशा उसे जंगल में चराने जाती-उसकी सेवा करती जिंदगी का बोझ
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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