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मध्यस्थता
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जिस तरह युक्ति के अनुसरण में मध्यस्थता रही है, ठीक उसी तरह सिद्धान्तों के दृष्टा महापुरुष की आप्तता का भी मध्यस्थ दृष्टि विचार करती है। जो वक्ता आप्तपुरुष-वीतराग है, उसका वचन । उपदेश हमेशा स्वीकार्य होता है, सर्वमान्य होता है। ठीक वैसे ही जो वक्ता वीतराग नहीं होता, उसका कथन और वचन प्राय: राग-द्वेषयुक्त होता है, अतः त्याज्य है। इस तरह मध्यस्थ दृष्टि की आलीशान इमारत आत्मा के त्याग और स्वीकार नाम के दो स्तम्भों पर टिकी हुई है।
'मध्यस्थया दृशा सर्वेष्वपुनर्बधकादिषु । चारिसंजीविनीचारन्यायादाशास्महे हितम् ॥१६॥८॥
अर्थ : अपुनर्बंधकादि समस्त में मध्यस्थ दृष्टि से संजीवनी का चारा चराने के दृष्टांत द्वारा कल्याण की कामना करते हैं।
विवेचन : स्वस्तिमती नाम का नगर था । वहाँ दो ब्राह्मण-कन्याएँ वास करती थी। दोनों में प्रगाढ मित्रता और अनन्य स्नेहभाव था । कालान्तर से दोनों विवाहित होकर अलग-अलग स्थान पर चली गयीं । किसी समय दोनों का आगमन स्वस्तिमती नगर में स्वगृह में हुआ । प्रदीर्घ समय के पश्चात् भेंट होने पर दोनों आनन्द से पुलकित हो उठीं । लगी आपस में अपनी अपनी सुनाने । बतियाते हुए एक सहेली ने सहज ही कहा : "सचमुच मैं बहुत दुःखी हूँ, सखी, लाख प्रयत्न के बावजूद भी मेरा पति मेरी एक बात भी नहीं सुनता । हमेशा अपनी मनमानी करता है।'
"सखी, तुम निश्चिंत रहो । मैं तुम्हें ऐसी जडी-बुट्टी दूंगी कि उसके सेवनमात्र से वह तेरा हो जाएगा ।' दूसरी ने कुछ सोच विचार कर कहा और उसे जडी-बुट्टी देकर वह चली गयी ।
ससुराल जाकर उसने वह जडी-बुट्टी पीसकर अपने पति को खिला दी। जडी-बुट्टी खाते ही उसका पति बैल रूप में परिवर्तित हो गया ! पति को बैल के रुप में देख, पत्नी को अत्यन्त दुःख हुआ। वह मन मार कर रह गयी । अब वह हमेशा उसे जंगल में चराने जाती-उसकी सेवा करती जिंदगी का बोझ