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ज्ञानसार
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥
प्रभु महावीर के प्रति हमारे मन में कोई पक्षपात नहीं है, ना ही कपिलादि मुनियों के प्रति कोइ द्वेषभाव है। लेकिन जिनका वचन युक्तिसंगत है, वह हमारे लिए ग्राह्य है, अंगीकार करने योग्य है ।"
हमारे समक्ष दो वचन रखे जाते हैं। हम उन्हें शान्ति से सुनते हैं, उसका सही ढंग से चिंतन-मनन करते हैं और तब जो युक्तिसंगत लगे उसका सादर स्वीकार करते हैं। क्या इसे आप पक्षपात कहेंगे? और जो वचन वाजिब न लगे, उसका परित्याग कर देते हैं । क्या इसे आप हमारा द्वेष कहेंगे ?
किसी भी वचन की युक्तियुक्तता जानने के लिए त्रिविध परीक्षा करनी पड़ती है। जिस तरह सोने को सोना मानने के लिए उसकी कसौटी करते हैं!
परिक्षन्ते कषच्छेदतापैः स्वर्णं यथा जनाः । शास्त्रेऽपि वर्णिकाशुद्धिः परीक्षन्तां तदा बुधाः ॥१७॥
-अध्यात्मोपनिषत् कष-च्छेद और ताप, इन तीन प्रकार की परीक्षा से शास्त्रवचन का यथोचित मूल्यांकन करना चाहीए । जिस शास्त्र में विधि एवं प्रतिषेधों का वर्णन किया गया हो और वे परस्पर अविरुद्ध हों, तो वह 'कष' परीक्षा में उत्तीर्ण कहा जाता है। विधि और निषेध के पालन का योग-क्षेम करनेवाली क्रियायें बतायी गयी हों तो उक्त शास्त्र ‘च्छेद' परीक्षा में उत्तीर्ण माना जाता हैं और उसके अनुरुप सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया हो तो उसे 'ताप' परीक्षा में उत्तीर्ण कहा जाता
"न श्रद्धयैव त्वयि पक्षपातो न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु ।। यथावदाप्तत्वपरीक्षया तु त्वामेव वीरप्रभुमाश्रिताः स्मः ॥"
हे देवाधिदेव महावीर प्रभु ! सिर्फ श्रद्धावश हमें आपके प्रति कोइ पक्षपात नहीं है । ठीक उसी तरह सिर्फ द्वेष के कारण दूसरों के प्रति अरूचि नहीं है। लेकिन यथार्थ आप्तत्व की परीक्षा से हम आपश्री का आश्रय ग्रहण करते हैं।"