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ज्ञानसार
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देशविरति अथवा सर्वविरति क्यों न हों । क्योंकि वे सब परमब्रह्म की ओर गतिशील हैं । फलस्वरूप, किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना रखने का प्रश्न ही नहीं उठता । जो मध्यस्थ दृष्टिवाले होते हैं, उनकी मध्यस्थता उन्हें परम ब्रह्मस्वरूप महोदधि में मिला देती है । तब अनायास ही आत्मा और परमात्मा का संगम हो जाता है ।
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जो जीव तीव्र भाव से पाप नहीं करता, वह क्षुद्रता, लाभरति, दीनता, हीनता, तुच्छता, भय, शठता, अज्ञान, निष्फल आरम्भ आदि भवाभिनन्दी के दोषों से रहित होता है । शुक्ल-पक्ष के चन्द्र की तरह सतत तेजस्वी और वृद्धिंगत ऐसे गुणों का स्वामी होता है। एक 'पुद्गल - परावर्त' काल से अधिक जिसका भव-भ्रमण नहीं है, ऐसे जीव को शास्त्रों में 'अपुनर्बधक, कहा गया है । ठीक उसी तरह, मार्गपतित और 'मार्गाभिमुख' इसी अपुनर्बंधक, की ही अवस्थाएँ हैं । मार्ग का अर्थ है चित्त का सरल प्रवर्तन । मतलब, विशिष्ट गुणस्थानक की प्राप्ति हेतु योग्य स्वाभाविक क्षयोपशम । क्षयोपशम पानेवाले को 'मार्गपतित' की संज्ञा दी गयी है, जबकि मार्ग में प्रवेश योग्य भाव को पानेवाली आत्मा को 'मार्गाभिमुख' कहा गया है ।
ये सभी जीव प्रायः मध्यस्थ दृष्टिवाले होते हैं । ठीक वैसे ही समकितधारी, देशविरति और सर्वविरतिधर जीव भी मध्यस्थ दृष्टिवाले होते हैं ! सर्वविरतिधारी के दो भेद हैं ! स्थविरकल्पी' और जिनकल्पी । वे भी तटस्थ दृष्टिवाले होते हैं । उपर्युक्त सभी तटस्थ दृष्टिवाले जीवों का एक ही लक्ष्य, एक ही साध्य परम ब्रह्मस्वरुप है और ये सब अपना विभिन्न अस्तित्व, परम ब्रह्मस्वरुप में विलीन कर देते हैं ।
कोइ भी जीव आराधना की कीसी भी भूमिका पर भले ही स्थित हो, स्थिर हो, यदि मध्यस्थ दृष्टिवाला है तो वह निर्वाण - पद का अधिकारी है । उसके लिए तुम्हारे मन में हमेशा मित्रता और प्रमोद की भावना होना आवश्यक है । आचार में रही भिन्नता मध्यस्थ दृष्टि में बाधक नहीं होती । ठीक वैसे ही पोशाक और वस्त्र की विविधता में मध्यस्थता बाधक नहीं है । वस्त्र और
१. स्थविरकल्पी जिनकल्पी का स्वरुप देखिए परिशिष्ट में