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मध्यस्थता
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दृढ़ संकल्प कर, जीवन जीने का प्रयास किया जाए तो नि:संदेह मध्यस्थदृष्टि के पट खुल जाएँगे और समभाव का मनभावन संवेदन पा सकेंगे ।
विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरितामिव ! मध्यस्थानां परं ब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम् ॥१६॥६॥
अर्थ : मध्यस्थो (तटस्थ) के विभिन्न भी मार्ग, एक ही अक्षय, उत्कृष्ट परमात्म-स्वरुप में मिलते हैं ! जिस तरह नदियों के अलग-अलग प्रवाह समुद्र में मिलते हैं !
विवेचन : नदियों के प्रवाह भिन्न-भिन्न होते हैं । नदियाँ अलग-अलग मार्गों से प्रवाहित होती हैं, लेकिन आखिरकार उसके विभिन्न प्रवाह एक ही समुद्र में आ मिलते हैं, वह समुद्र से एकाकार हो जाते हैं।
यह एक ऐसा उदाहरण है कि यदि इसके रहस्य को समझा जाए, गहरायी से इस पर विचार किया जाए तो सभी जीवों के प्रति अटूट मित्रता एवं सद्भाव प्रस्थापित होते देर नहीं लगती ।
कोई नदी उत्तर में बहती है, तो कोई नदी दक्षिणांचल को अपने प्रवाह से फलद्रुप बनाती है, तो कोई पूर्वांचल को सिंचते हुए उपजाऊ भूप्रदेश के रूप में परिवर्तित करती है । तो किसी नदी का प्रवाह पश्चिम किनारे को हरियाली
और घनी वनराशि से सुशोभित करता, समुद्र की ओर बढता रहता है। इस तरह भिन्न-भिन्न मार्ग और विविध प्रदेशों में नदियाँ प्रवाहित होते हुए भी उनकी गति समुद्र की ओर होती है। सम्भव है, किसी नदी का पट विशाल होता है तो किसी का सीमित, किसीकी गहरायी विशेष होती है, तो किसीकी सामान्य ! किसी का प्रवाह तीव्र होता है तो किसीका मंद ! लेकिन उन सबकी मंजिल एक होती है
और वह है अतल, अथाह समुद्र की मनभावन गोद ! वे अपने अस्तित्व को भुला कर समुद्र में पूर्णरूप से एकाकार हो जाती हैं ।
ठीक उसी तरह समस्त साधनाओं में, आराधनाओं में, उनकी पद्धति में भले ही विभिन्नता हों, लेकिन आखिरकार वे सभी मोक्ष-मार्ग की ओर जीव को गतिशील बनाती हैं । फिर भले ही वह अपुन-बंधक, मार्गाभिमुख, समकितधारी,