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ज्ञानसार
सर्व नय अपने-अपने वक्तव्य में सत्य हैं, सही हैं । परन्तु दूसरे नय के वक्तव्य का खण्डन करते समय गलत हैं । मिथ्या हैं । अनेकान्त-सिद्धान्त के ज्ञाता पुरुष, उक्त नयों का कभी 'यह नय सत्य है और वह नय असत्य है, ऐसा विभाग नहीं करते ।'
यदि हम पारमार्थिक दृष्टि से विचार करें तो जो नय, नयान्तर सापेक्ष होता है, वह वस्तु के एकाध अंश को नहीं, अपितु सम्पूर्ण वस्तु को ही ग्रहण करता है। अत: वह "नय" नहीं बल्कि "प्रमाण" बन जाता है। नय वह है जो नयान्तर-निरपेक्ष होता है । अर्थात् अन्य नयों के वक्तव्य से निरपेक्ष अपने अभिप्राय का वक्तव्य करनेवाला 'नय' कहलाता है और इसीलिए नय मिथ्यादृष्टि ही होता है। तभी शास्त्रों में कहा गया है, 'सव्वे नया मिच्छावाइणो' सभी नय मिथ्यावादी हैं । श्री मलयगिरिसूरीश्वरजी ने 'श्री आवश्यकसूत्र' में कहा है :
'नयवाद मिथ्यावाद है । अतः जिनप्रवचन का रहस्य जाननेवाले विवेकशील पुरुष मिथ्यावाद का परिहार करने हेतु जो भी बोलें उसमें 'स्यात्' पद का प्रयोग करते हुए बोलें । अनजान में भी कभी स्यात्कार रहित न बोलें। हालांकि आम तौर से देखा गया है कि लोकव्यवहार में सर्वत्र सर्वदा प्रत्यक्ष रूप में 'स्यात्' पद का प्रयोग नहीं किया जाता । फिर भी परोक्षरुप में उसके प्रयोग को मन ही मन समझ लेना चाहिए ।
मध्यस्थ वृत्तिवाले महामुनि, प्रत्येक नय में निहित उसके वास्तविक अभिप्राय को भली-भांति समझते हैं और तभी वे उसे उस रुप में सत्य मानते हैं । 'प्रस्तुत अभिप्राय के कारण इस नय का वक्तव्य सत्य है।' इस तरह वे किसी नय के वक्तव्य को मिथ्या नहीं मानते !
वस्तु एक है, लेकिन प्रत्येक नय इसका विवेचन / वक्तव्य अपने अपने ढंग से करता है। उदाहरणार्थ हाथी और सात अन्धे ! एक कहता है "हाथी खंभे जैसा है।" दूसरा कहता है हाथी सूपड़े जैसा है।" तीसरा कहता है हाथी रस्से जैसा है। चौथा कहता है "हाथी ढोल जैसा है" पाँचवा कहता है "हाथी अजगर जैसा है ।" छठा कहता है "हाथी लकड़ी जैसा है" और सातवां सबको झूठा करार दे, कहता है "हाथी घड़े जैसा है।"