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________________ मध्यस्थता २१५ युक्ति को परख कर उसका अनुसरण करते रहो । *नयेषु स्वार्थसत्येषु मोघेषु परचालने । समशीलं मनोयस्य स मध्यस्थो महामुनिः ॥१६॥३॥ अर्थ : अपने-अपने अभिप्राय में सच्चे और अन्य नयों के वक्तव्य का निराकरण करने में सर्वथा निष्फल नयों में जिनका मन सम-स्वभावी है, ऐसे मुनिवर बाकई में मध्यस्थ हैं। विवेचन : प्रत्येक नय अपने-आप में सत्य होता है, वास्तविक होता है, लेकिन जब वह एक-दूसरे के दृष्टिबिन्दु का खण्डन करते हैं तब असत्य होते हैं। 'स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणावधारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेतुमभिप्रेति स नयः । जिसका अभिप्राय, अपने अभिलषित धर्म के निर्णयपूर्वक वस्तु का ज्ञान पाने का है, उसे नय कहा जाता है । जब एक नय किसी वस्तु के सामान्य अंश का प्रतिपादन कर, वस्तु को उस स्वरुप में देखने । समझने का आग्रह रखता है और दूसरा नय वस्तु के विशेष अंश का प्रतिपादन कर उसे उस स्वरूप में जानने की चेष्टा करता है, तब जो मनुष्य मध्यस्थ नहीं है, वह किसी एक नय की युक्ति को सत्य मान, दूसरे नय के वक्तव्य को असत्य करार दे बैठता है। फलतः वह एक नय का पक्षघर बन जाता है। लेकिन मध्यस्थ-वृत्तिवाला, समभाववाला मुनि सभी नयों को सापेक्ष मानता है। मतलब यह कि वह प्रत्येक नय के वक्तव्य का सापेक्षदृष्टि से मूल्यांकन करता है। अत: वह भूलकर भी कभी ऐसा विधान नहीं करता कि 'यह नय सत्य है और वह नय असत्य है।' नियनियवयणिज्जसच्चा, सव्व नया परवियालगे मोहा । ते पूण ण दिट्ठसमश्रो विभयइ सच्चे व अलिए वा' ॥२८॥ - सम्मतितर्क ★ नयवाद : परिशिष्ट देखिए
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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