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ज्ञानसार
मूल्यांकन करने में असमर्थ जीव उस पंथ या मत में शामिल हो जाता है। लेकिन सिर्फ कुतर्क के आधार पर स्थित कपोल कल्पित मत-मतांतर, पंथ और संप्रदाय वर्षा ऋतु में जन्मे कुकुरमुत्ते की तरह अल्प जीवी सिद्ध होते हैं ! अथवा अज्ञान
और मतिमंद जीवों के क्षेत्र में वह पंथ या संप्रदाय फल-फूल कर वृक्ष का रूप धारण कर लेता है !
सीधा-सादा जीव, कुतर्क को ही सुतर्क समझकर नादानी में उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। जबकि कभी-कभी सुतर्क को कुतर्क समझ उससे कोसों दूर निकल जाता है । सुतर्क को सुतर्क और कुतर्क को कुतर्क समझने की क्षमता रखनेवाला मनुष्य ही मध्यस्थ-दृष्टि प्राप्त कर सकता है ।
यथार्थ वस्तु-स्वरूप की जानकारी हासिल करने हेतु युक्ति का आधार लेना अत्यन्त आवश्यक है । ठीक उसी तरह युक्ति को यथार्थ रूप में समझने के लिए उसकी परिभाषा को समझना जरूरी है। वर्ना मिथ्या भ्रम की भूल भुलैया में भटकते देर नहीं लगती । जानते हो, शिवभूति की कैसी दुर्दशा हुई ? रथवीर- पुर नामक नगर में स्थित आचार्यश्री आर्यकृष्ण का परम भक्त और अनन्य शिष्य शिवभूति, मतिभ्रष्ट हो गया । आचार्यश्री द्वारा विवेचित 'जिनकल्प' के शास्त्रीय विवेचन को वह अपनी कल्पना की उड़ान पर उड़ा ले गया । आचार्य श्री ने अपने शिष्य को भ्रम के चक्रव्यूह में फँसने से बचाने हेत् 'जिनकल्प' का यथार्थ विवेचन करने के लाख प्रयत्न किये ! अकाट्य तर्क देकर उसे समझाने का प्रयत्न किया । लेकिन सब व्यर्थ गया ! शिवभूति के मन:कपि ने युक्ति रूप गाय की पूंछ पकड,. हरबार अपनी और खींचने का प्रयत्न किया ! यहाँ तक कि स्वयं वस्त्रत्याग कर दिया ! वस्त्रहीन नगर में सरे आम निकल पड़ा और जो भी तर्क उसको अपने मत के पोषक प्रतीत हुए, अनुकूल लगे, उन्हें ग्रहण कर एकांगी बन गया । यह सब करते हुए उसने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का विचार नहीं किया । उसने उत्सर्ग और अपवाद का विचार नहीं किया । वह अपने मत का ऐसा दुराग्रही बन गया कि सापेक्षवाद का भी विचार नहीं किया । 'वस्त्रधारी मोक्ष नहीं पा सकता,' इसी एक हठाग्रह के कारण वह यथार्थ वस्तु स्वरूप के बोध से सर्वथा वंचित रह गया । मतलब, हमेशा