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________________ २१७ सातों अन्धों की बात और परस्पर हो रहे वाद-विवाद को समीप ही खड़ा एक सज्जन चुपचाप सुन रहा है। क्या वह किसी के प्रति पक्षपात करेगा / किसी का पक्षघर बन कर क्या यों कहेगा : "अमुक सही कह रहा है और अमुक झूठ बोल रहा है ?” तनिक सोचिए, अपने दिमाग को कसिए, क्या वह यों कह सकेगा ? नहीं, हर्गिज नहीं कहेगा । अपितु मध्यस्थ भाव से कहेगा तो यह कहेगा "भाइयों, तुम सब अपने-अपने विचार, मत के अनुसार सच कह रहे हो । क्योंकि तुम्हारे हाथ में हाथी का जो अवयव आया, उसीका तुम अपने-अपने हिसाब से वर्णन कर रहे हो ! लेकिन तुम सभी के कथन का सामूहिक रुप है हाथी !' : 1 मध्यस्थता स्वस्वकर्मकृतावेशः स्वस्वकर्मभुजो नराः । न रागं नापि च द्वेषं मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥ १६॥४॥ अर्थ : जिन्होंने अपने-अपने कर्मों का आग्रह किया है, वैसे अपने अपने कर्मो को भोगनेवाले मनुष्य हैं ! इसमें मध्यस्थ पुरुष राग नहीं करता है । विवेचन: राग-द्वेष की शिथिलता - स्वरुप मध्यस्थ दृष्टि प्राप्त करने के लिए जगत् के जड़-चेतन द्रव्यों को और उनके पर्यायों को सही रुप में देखना चाहिए । यदि प्रत्येक परिस्थिति को, हर एक प्रसंग को और एक एक कार्य को यथार्थ स्वरूप में देखा जाए, यानी उसके कार्य-कारण भाव को समझा जाए तो नि:संदेह राग-द्वेष की उत्पत्ति नहीं होगी । इस दृष्टि से केवलज्ञान के साथ वीतरागता का सम्बन्ध यथार्थ है । केवलज्ञान में विश्व के प्रत्येक द्रव्य... पर्याय, संयोग, परिस्थिति और हर कार्य, यथार्थ स्वरुप में वास्तविक कार्य-कारणभाव के रुप में दिखायी देता है । फलतः, राग-द्वेष का प्रश्न ही नहीं उठता। तात्पर्य यही है कि जैसे-जैसे विश्व के पदार्थों का यथार्थ-दर्शन होता जायेगा, वैसे-वैसे राग-द्वेष क्षीण होते जाएँगे । राग-द्वेष की तीव्रता में यथार्थ-दर्शन होना अशक्य है । वास्तव में राग-द्वेष की उत्पत्ति विश्व के अस्पष्ट एवं औंधे दर्शन से होती है । यहाँ पर संसारी जीवों के प्रति देखने का एक ऐसा यथार्थ दृष्टिकोण अपनाया गया है कि राग-द्वेष नष्ट हुए बिना कोई चारा नहीं । जिस जीव के प्रति
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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