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________________ २०४ ज्ञानसार सक्तः प्रशमरतिसुखे न भजति तस्यां मुनिः संगम् ॥२५६॥ या सर्वसुखरद्धिः विस्मयनीयापि सात्वनगारद्धेः । नाधंति सहस्त्रभार्ग कोटिशतसहस्त्रगुणिताऽपि ॥२५७।-प्रशमरति "विश्व में अन्य जीवों को दुर्लभ वैसी ऋद्धि-लब्धि की विभूति पाकर और रस-ऋद्धि-शाता-गारव-रहित अणगार भूलकर भी कभी उक्त लब्धि के सुख में आसक्तिभाव नहीं रखता । वह तो प्रशमरति के सुख में निमग्न होता है।" _ "समस्त देवताओं की अद्भुत समृद्धि की गणना असंख्य बार की जाय फिर भी उसकी तुलना मुनि की आध्यात्मिक-सम्पत्ति के हजारवें भाग के साथ भी नहीं की जा सकती ।" विवेक-भेदज्ञान की गरिमामय पर्वतमालाओं पर अनुपम सुख बिखरा पड़ा है और अनुत्तर आत्म-समृद्धि के अक्षय भण्डार भरे पड़े हैं । लेकिन इस पर्वतमाला पर आरोहण करने के पूर्व जीव को कतिपय महत्त्व की बातें ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है। १. धर्म-ध्यान में निमग्नता २. भवोद्वेग ३. क्षमाप्रधानता ४. निरभिमान, ५. मायारहित निर्मलता ६. तृष्णाविजय ७. शत्रु-मित्र के प्रति समभाव ८. आत्माराम ९. तृण-मणि के प्रति समदृष्टि १०. स्वाध्याय-ध्यानपरायणता ११. दृढ़ अप्रमत्तता १२. अध्यवसाय विशुद्धि १३. वृद्धिंगत विशुद्धि
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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