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________________ विवेक १४. श्रेष्ठ चारित्रशुद्धि १५. लेश्या - विशुद्धि तभी 'अपूर्वकरण' रूपी शिखर पर पहुँचा जा सकता है । मन में किया गया ऐसा दृढ़ संकल्प कि 'मुझे विवेक - गिरिराज पर आरोहण करना है' उपर्युक्त पन्द्रह बातों को आत्मसात् करने की अनन्य शक्ति प्रदान करता है । साथ ही शिखर पर पहुँचने के पश्चात् भी भेद- ज्ञान के अप्रमत्त भाव को जागृत रखना होता है । यदि वहाँ प्रमाद का अवरोध उपस्थित हो जाए, शुद्ध चैतन्यभाव से तनिक भी विचलित हो जाए, तब पतन हुए बिना नहीं रहेगा । 1 भेद - ज्ञान की इसी सर्वोत्कृष्ट भूमिका पर विपुल प्रमाण में कर्मक्षय होता है | आत्मा स्व-स्वभाव में अपूर्व सत्चिदानन्द का अनुभव करती है, साथ ही प्रशम - रति में केलि-क्रीड़ा करती है । आत्मन्येवात्मनः कुर्यात् यः षटकारकसंगतिम् । क्वाविवेकज्वरस्यास्य, वैषम्यं जडमज्जनात् ॥१५॥७॥ २०५ अर्थ: जो आत्मा आत्मा में ही छह कारक का सम्बन्ध प्रस्थापित करती है, उसे भला जड़ - पुद्गल में निमग्न होने से उत्पन्न अविवेक रुपी ज्वर की विषमता कैसे सम्भव है ? विवेचन : व्याकरण की दृष्टि से कारक के छह प्रकार होते हैं : (१) कर्ता (२) कर्म (३) करण (४) संप्रदान (५) अपादान (६) आधार - अधिकरण जगत में विद्यमान सब सम्बन्धों का समावेश प्रायः इन छह कारकों में हो जाता है । उक्त छह कारकों का सम्बन्ध आत्मा के साथ जोड़ देने से एक
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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