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विवेक
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अधर्मास्तस्तिकाय से आत्म-द्रव्य भिन्न है ।
आकाशास्तिकाय का धर्म 'अवकाश' है और आत्मा का गुण ज्ञान है। अतः आकाशास्तिकाय से भी आत्म-द्रव्य भिन्न है।
इन्द्रिय, बल, श्वासोश्वास, आयुष्यादि द्रव्य-प्राण पुद्गल के ही पर्याय हैं और आत्मा से बिलकुल भिन्न हैं । अत: द्रव्य-प्राण में आत्मा की भ्रांति वर्जनीय है । आत्मा द्रव्य-प्राण के बिना भी जिंदा है जीवित है ।
जीवो जीवति न प्राणैविना तैरेव जीवति ।
इस तरह शरीरादि पुदगल-द्रव्यों में आत्मा की भेदबुद्धि विवेकशील को होनी चाहिए, यही परमार्थ है।
इच्छन् न परमान् भावान् विवेकाद्रेः पतत्यधः । परमं भावमन्विच्छन् नाविवेके निमज्जति ॥१५॥६॥
अर्थ : परमोच्च भावों की इच्छा न रखनेवाला जीव विवेक रूपी पर्वत से नीचे गिर जाता है और परम भाव को खोजनेवाला अविवेक में कभी निमग्न नहीं होता। . विवेचन : शुद्ध चैतन्यभाव सर्व विशुद्ध आत्मभाव का अन्वेषण जीव को विवेक की सर्वोच्य यो ही पर पहुँचा देता है। जबकि शुद्ध चैतन्यभाव की उपेक्षा, विवेक के हिमगिरि पर से जीव को गहरी खाई में पटक देती है। जहाँ विवेकरूपी पशुओं के राक्षसी जबड़े में चबा जाता है।
विवेक-गिरिराज का शिखर है अप्रमत्तभाव । गिरिराज के शिखर पर अप्रमत्त आत्मा को दुर्लभ सिद्धियों की, लब्धियों की प्राप्ति होती है, लेकिन विशुद्ध आत्मभावयुक्त जीव उन सिद्धियों और लब्धियों के प्रति उदासीन होता है । वह पूर्णतया अनासक्त होता है ।
वाचकवर श्री उमास्वातिजी ने कहा है : सातद्धिरसेष्वगुरूः प्राव्यद्धिविभूतिमसुलभामन्यै ।