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ज्ञानसार
तन्निश्चयो न सहते यमूर्तो न मूर्तताम् । अंशेनाप्यवगाहेत पावकः शीततामिव ॥३५॥ उष्णस्याग्नेर्यथा योगाद् धृतमुष्णमिति भ्रमः । तथा मूर्ताङ्गसंबन्धादात्मा मूर्त इति भ्रमः ॥३६॥ न रुपं न रसो गन्धो न स्पर्शो न चाकृतिः । यस्य धर्मो न शब्दो वा तस्य का नाम मूर्तता ॥३७॥
अमूर्त आत्मा क्या अमुक अंश में भी मूर्तता धारण करता है ? क्या अग्नि अंशमात्र भी शीतलता धारण करती है ? आत्मा में मूर्तता की निरी भ्रमणा है। जिस तरह उष्ण अग्नि के कारण 'घी उष्ण है' का भ्रम होता है, ठीक उसी तरह मूर्त शरीर के संयोग से 'आत्मा मूर्त है' का भ्रम मात्र होता है। जिसका धर्म रूप नहीं. रस नहीं, गन्ध नहीं, स्पर्श नहीं, आकृति नहीं, ना ही शब्द है...'ऐसी आत्मा भला, मूर्त कैसी और किस तरह ? रुप, रस, गन्ध, स्पर्श, आकृति और शब्द ये सब जड़ के गुणधर्म है, ना कि आत्मा के । तब भला, शरीरादि पुद्गल में आत्मा की एकता कैसे मान लें ?
वास्तव में आत्मा तो सच्चिदानन्द स्वरूप है। उसे मूर्तता स्पर्श तक नहीं कर सकती।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसोऽपि पर बुद्धिर्यो बुद्धः परतस्तु सः ॥
"इन्द्रियों" को 'पर-अन्य' कहा जाता है, इन्द्रियों से मन 'पर' है, मन से बुद्धि "पर" है और बुद्धि से आत्मा 'पर' है। ऐसी अमूर्त आत्मा में मूर्तता आरोपित कर, अज्ञानी मनुष्य भव-भ्रमण में भटक जाता है। • पुद्गल द्रव्य का धर्म मूर्तता है और आत्मा का गुण ज्ञान है । अतः पुद्गलों
से आत्म-द्रव्य भिन्न है। धर्मास्तिकाय का धर्म गतिहेतुता है और आत्मा का गुण ज्ञान है, अतः
धर्मास्तिकाय से आत्मद्रव्य भिन्न है । • अधर्मास्तिकाय का धर्म स्थितिहेतुता है और आत्मा का गुण ज्ञान है । अतः