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________________ विवेक २०१ जीवों के प्रति भी वह इसी अज्ञान-दृष्टि का अवलम्बन करता है । कर्मजन्य विकृति को आत्मा की विकृति मानता है। अपनी इसी समझ और मान्यता के आधार पर प्रायः वह आचरण करता है । फलतः उसका व्यवहार भी मलिन हो गया है। ____ आजतक वह, कर्मजन्य विकृतिओं को आत्मा में आरोपित कर निरंतर मिथ्यात्व को दृढ़ करता रहा है । लेकिन अब उसी मिथ्यात्व को नेस्तनाबूद करने के लिए भेद-ज्ञान की राह चलने की आवश्यकता है । आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की अत्यन्त आवश्यकता है। तभी हृदय शुद्ध होगा, दृष्टि पवित्र होगी और मोक्ष-मार्ग सुगम बन जाएगा । सदा सर्वदा अपने हृदय में निश्चयनय की दृष्टि को अखंड ज्योति की तरह ज्योतिर्मय रखने की नितान्त आवश्यकता है। प्रस्तुत उपदेश को हृदयस्थ कर तदनुसार कदम उठाना जरूरी है। इष्टकाद्यपि हि स्वर्णं पीतोन्मतो यथेक्षते । आत्माऽभेदभ्रमस्तद्वद् देहादावविवेकिनः ॥१५॥५॥ अर्थ : जिस तरह जिसने धतूरे का रस पिया हो वह ईंट-पत्थर वगैरह को सोना देखता है, ठीक उसी तरह अविवेकी-जड़मति को भी शरीरादि में आत्मा का भ्रम होता है। विवेचन : धतूरे का पेय मनुष्य की दृष्टि में विपर्यास पैदा करता है। जो भी वह देखता है, उसे सर्वत्र सोना ही सोना दिखता है । अविद्या अविवेक का प्रभाव धतूरे के पेय से कम नहीं होता । शरीर इन्द्रिय... मन... आदि में वह आत्मा का अभेद मानता है... और उसे ही आत्मा समझ लेता है। पुनः पुनः जड़ तत्त्वों से आत्मा की भिन्नता समझाने के लिए अनेकविध दृष्टांतों का आधार लिया जाता है, आत्मा के गुण अलग हैं और जड़-पुद्गल के अलग । जड़-पुद्गल मूर्त हैं, रूपी हैं जबकि आत्मा पूर्णतया अरुपी । निराकारी है । व्यवहारनय भले ही शरीर के साथ आत्मा के एकत्व को मान्य करता हो, लेकिन निश्चयनय को यह मान्य नहीं है। वह शरीर के साथ आत्मा की एकता मान्य नहीं करता ।
SR No.022297
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherChintamani Parshwanath Jain Shwetambar Tirth
Publication Year2009
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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